मिर्जा ग़ालिब का यह शे’र कभी इच्छामृत्यु के संदर्भ में
भी पढ़ा जाएगा, सोचा नहीं था। विश्व में कई मुद्दे
ऐसे हैं जो मूर्छित अवस्था में रहते हैं। वे जब जब होश में आते हैं, व्यापक बहस को जन्म देते हैं। ऐसा ही एक
संवेदनशील विषय है- इच्छामृत्यु, जिसने विश्व
भर की सरकारों और न्यायालयों के सामने समय-समय पर चुनौती खड़ी
की है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र एवं राज्य सरकारों से अपनी
राय देने के लिए कहा है. दरअसल, यह मुद्दा बेहद विरल परिस्थितियों की उपज है जहां
दोनों ओर मजबूरी भी है और मानवता भी। प्रत्येक देश अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक और
नैतिक आधारों के आलोक में इस पर विचार करता है। यही
कारण है कि इस विषय पर कभी एक राय बनती नहीं दिखी।
सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर हमेशा विवाद रहा है. निष्क्रिय दयामृत्यु यानी
लाइलाज परिस्थिति में इलाज बंद कर देना या जीवनरक्षक प्रणालियों
को हटा देना. इसे दुनिया के कई देशों में कानूनी मान्यता है लेकिन यदि मरीज मानसिक तौर पर
अपनी मौत की मंजूरी देने में असमर्थ हो तब उसे इरादतन दवाईयों
द्वारा मृत्यु देना पूरी दुनिया
में गैरकानूनी है। वहीँ सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज की पूर्ण मंजूरी के बाद डॉक्टर
दवाई देकर जीवन पर पूर्ण विराम लगाते हैं. दुनिया में सबसे पहले आॅस्ट्रेलिया के उत्तरी राज्य ने 1996 में
इच्छामृत्यु को वैध घोषित किया था, लेकिन 1997 में पुन:
विमर्श के बाद इस फैसले को वापस ले लिया गया।
फरवरी 2014 में जब बेल्जियम आयु संबंधी
समस्त प्रतिबंध हटा कर अपने सभी नागरिकों को ऐसा अधिकार देने वाला विश्व
का पहला राष्ट्र बना, तो इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए। मसलन,
प्रायः जब
यह माना जाता है कि बच्च्चे आर्थिक और भावनात्मक मामलों में अहम फैसले लेने में
परिपक्व नहीं होते तो फिर वे अपने जीवन के अंत का स्वैच्छिक और स्वतंत्र निर्णय कैसे
ले सकते हैं?
क्या पांच वर्षीय बालक उस परिस्थिति पर ठीक वैसे ही विचार कर सकता है जैसा सोलह वर्ष का
किशोर कर सकता है? क्या दोनों की
समझ और परिपक्वता का स्तर एक ही होता है? अगर नहीं तो फिर
ऐसे गंभीर कानून में आयु सीमा का निर्धारण क्यों नहीं किया गया। ऐसे कई सवाल है.
बेल्जियम सहित नीदरलैंड्स और लक्जमबर्ग में भी सक्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी
गई है, जिसके लिए बेहद कड़े कानूनों का
प्रावधान है। यहां बीमारियों की सूची तैयारी
की गई है और एक खास आयोग को इच्छामृत्यु के फैसले तय करने का अधिकार दिया गया है. फ्रांस और कनाडा में लाइलाज बीमारी से ग्रस्त
रोगी की जीवनरक्षक प्रणाली मरीज के अनुरोध पर डॉक्टर हटा
सकते हैं, पर रोगी किसी की सहायता से आत्महत्या की मांग नहीं कर सकता। जबकि स्विट्जरलैंड
में 1937 से ही ‘असिस्टेड
सुसाइड’ (डॉक्टर के सहयोग से आत्महत्या) की मंजूरी
मिली हुई है। लेकिन चिकित्सक यदि स्वार्थ स्वरूप ऐसा करता पाया गया
तो उसे अपराध की श्रेणी में रखने का भी प्रावधान है। नीदरलैंड और
बेल्जियम में भी चिकित्सक के सहयोग से
आत्महत्या को वैधानिक माना जाता है। अमेरिका में सक्रिय इच्छामृत्यु
प्रतिबंधित है, पर ओरेगॉन, वाशिंगटन और मोंटाना
राज्य में अगर रोगी की मांग पर जीवनरक्षक उपचार बंद कर दिया जाए तो
डॉक्टर दोषी नहीं माने जाएंगे।
दरअसल, इच्छामृत्यु बेहद जटिलताओं से
भरा विषय है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा।
भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को
भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या धारा 304 के तहत और
सहयोगात्मक आत्महत्या को धारा 306 के तहत अपराध
माना गया है। भारत में समय-समय पर इस पर कई तरह की राय सामने आई
है। लेकिन अरुणा शानबाग प्रकरण से इस मुद््दे पर बहस में तीव्रता आई। सत्ताईस नवंबर 1973 को वार्ड बॉय
मोहनलाल ने नर्स अरुणा को गले में जंजीर बांध कर अप्राकृतिक दुष्कर्म का शिकार बनाया।
जंजीर के कारण अरुणा के दिमाग की तरफ रक्त और प्राणवायु
का संचार बंद हो गया। तत्कालीन कानूनी व्यवस्था और
सजा के लचर प्रावधानों के चलते आरोपी
सात साल में रिहा हो गया, लेकिन अरुणा तब से लेकर आज तक
लगभग मृत अवस्था में मुंबई के अस्पताल में भर्ती हैं।
वर्ष 2011 में तत्कालीन न्यायाधीश
मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च
न्यायालय की खंडपीठ ने अरुणा के लिए दायर इच्छामृत्यु की याचिका को खारिज करते हुए भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को
गैरकानूनी करार दिया था। हालांकि असामान्य परिस्थितियों
में निष्क्रिय दयामृत्यु या इच्छामृत्यु की अनुमति दी जा
सकती है, लेकिन जब तक संसद इस बारे में
कोई कानून नहीं बनाती तब तक निष्क्रिय और सक्रिय
दोनों प्रकार की इच्छामृत्यु को अवैधानिक ही माना जाएगा।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मानवीय
गरिमा के साथ जीने का अधिकार, और वे सब
पहलू, जो जीवन को अर्थपूर्ण और
जीने-योग्य बनाते हैं, शामिल हैं। कई लोगों ने गरिमामय
जीवन न होने का हवाला देकर तर्क किया कि अगर जीने का
अधिकार है तो मरने का भी होना चाहिए। लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में
साफ किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन के
अधिकार’ में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। ऐसा करने पर आइपीसी की धारा 306 और 309 के तहत
आत्महत्या का अपराध माना जाएगा।
आत्महत्या के प्रयास के लिए दोषी माने जाने को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं। मसलन बेबसी, लाचारी या
अवसाद की स्थिति में किए गए खुदकुशी के प्रयास को धारा 309 के तहत लाया
जाना चाहिए या नहीं? ऐसे किसी व्यक्तिको सजा मिलनी चाहिए या समस्या का उपचार? इस धारा को
समय-समय पर खारिज करने की मांग उठती रही है।
लेकिन यह एक अलग बहस का मुद््दा है, क्योंकि
इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो बिल्कुल अलग-अलग स्थितियां हैं, जिनमें भेद
करना जरूरी है। सवाल है कि इस अधिकार की अंतिम सीमा क्या है? एक बार
अधिकार मिलने के बाद यह मांग कहां तक तक जाएगी, इस पर विचार
किया जाना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां
बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण आदि
सामाजिक और व्यवस्थागत चुनौतियां विद्यमान हैं, वहां
इच्छामृत्यु जैसे अधिकारों का दुरुपयोग होने की आशंकाएं प्रबल हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भारत में आर्थिक तंगी के चलते इलाज न करा सकने वाले कई व्यक्तियों और परिवारों ने इच्छामृत्यु की
अनुमति के लिए जिला कलेक्टर, राज्य
सरकारों से लेकर राष्ट्रपति तक के पास आवेदन किए हैं। यही नहीं, कानपुर के
कोपरगंज इलाके में बरसों से रह रहे चीनी मिल परिसर के निवासियों को
अदालत के आदेश पर जब घर खाली करने पड़े तो बेघर हुए करीब छियासी
परिवारों ने राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की मांग की। यह स्थिति केवल भारत की नहीं
है, विश्व के अधिकतर देश इसके
दुरुपयोग होने की आशंकाओं के चलते संशय में रहते हैं। बेल्जियम
में 2002 से 2012 के बीच वयस्कों के लिए इच्छामृत्यु के अधिकार के तहत
करीब साढ़े छह हजार आवेदन आए, जिनमें
अधिकतर मामलों में वैसे लोगों के आवेदक होने की संभावना है जो निराशापूर्ण जीवन से तंग आ चुके हैं। ‘डॉक्टर डेथ’ के नाम से
प्रसिद्ध अमेरिका के डॉक्टर जैकब ‘जैक’ केवोरकियन को
एक सौ तीस व्यक्तियों को इच्छामृत्यु के नाम पर जहर देकर
मौत देने के आरोप में जब दोषी पाया गया तो भारत से लेकर
अमेरिका तक के डॉक्टर यह मानने लगे कि इस तरह के कानून की आड़ में मानव
अंगों की तस्करी से लेकर स्वार्थी गतिविधियों और दूसरे अवैध धंधों को बल मिल सकता है।
चिकित्सकीय नीतिशास्त्र के मुताबिक डॉक्टर से यह अपेक्षा की जाती है कि जब तक संभव हो सके तब तक मरीज को जिंदा रखने का
प्रयास किया जाना चाहिए। टीबी और कैंसर के इलाज में मिली
सफलता इस बात का प्रमाण है कि नई-नई खोजों से लाइलाज
बीमारियों का इलाज कब संभव हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में किसी मरीज को हताशा के गर्त में कैसे झोंका जा सकता
है? इच्छामृत्यु के समर्थक मानते हैं कि विशेष और अपवाद जैसी परिस्थितियों के चलते पीड़ित को ‘सम्मानजनक
मौत’ दी जानी चाहिए। लेकिन क्या ‘सम्मानजनक मृत्यु’ का ‘विशेष’ और ‘अपवाद’ परिस्थिति ही
पैमाना है? या इसके और भी अर्थ निकल सकते हैं? क्या
बेल्जियम के सभी आवेदकों की परिस्थिति ‘अपवाद’ हो सकती है? निस्संदेह
प्रत्येक व्यक्ति इसका अपने अनुसार अर्थ निकाल सकता है। अगर अरुणा
शानबाग को ‘विशेष परिस्थितियों’ के चलते
निष्क्रिय दयामृत्यु का अधिकार मिल भी जाए तो क्या उसे ‘सह-सम्मान
मृत्यु’ की संज्ञा दी जा सकेगी? इस पर विचार करने
की जरूरत है।
भले ही किसी भी देश में इच्छामृत्यु को वैधानिक मान्यता मिल जाए, पर भारतीय संसद और न्यायालय के सामने सबसे बड़ी चुनौती
यहां की धर्म और आस्थाओं से घिरी जिंदगी है। आज भी सवा
रुपए से लेकर परिक्रमा, व्रत और लंगर नाउम्मीदी के अंधेरे को पसरने नहीं देते। यहां डॉक्टर
भगवान का पर्याय है और डॉक्टर भगवान पर भरोसा रखने
के लिए भी कहता है। ऐसे में इच्छामृत्यु के सवाल से जूझना क्या
आसान होगा?