(बाल दिवस पर लिखा गया आलेख)
आज नन्हें साथियों का दिन है. बच्चों का दिन है. उनकी
चेहरों की निश्छल हँसी का दिन है. बेहतर होगा कि आज हम उनकी सकारात्मक ऊर्जा की
बात करें, उनकी सृजनात्मक क्षमता पर विचार करें
और उनके भीतर के अल्हड़ लेकिन मौलिक विचारों की उठती वेग शक्ति को समझने का प्रयास
करें. समझना इसलिए क्योंकि बच्चों पर बात करने के लिए हमारे साथ सबसे बड़ी समस्या
यह है कि हम उन्हें अपने अनुसार परिभाषित करने लगते हैं. न तो हम अपने समय से आगे
बढ़कर बच्चों के समय में दाखिल होना पसंद करते हैं और न उनके कल्पनालोक की सैर पर
जाना हमें रास आता है.
उनकी सुन्दरता हम अपने दृष्टिकोण से देखना चाहते है.
जबकि हक़ीक़त में बच्चों की सुन्दरता उनकी सरलता में निहित है. उनकी कल्पनाशीलता का
कोई जवाब नहीं. एक बार उनके साथ उनकी दुनिया को नापने चले जाइए, यक़ीन मानिए आप हैरान रह जायेंगे उनकी रचनात्मकता से। उनके पास ऐसा फ़ीता है
जो सागर की तलहटी से एवरेस्ट की चोटी को पलक झपकते नाप सकता है. ऐसी तेज़ धार कैंची
है जो समय को काट सकती है. मासूम अधरों से झरते ऐसे बोल हैं जो सबको सोचने पर
मजबूर कर सकते हैं.
मैं बचपन से आज तक कई ‘सृजनात्मक लेखन’
कार्यशालाओं का भागीदार रहा हूँ. इसलिए यहाँ एक घटना का उल्लेख
विशेष रूप से करना चाहूँगा. बात आज से करीब दस वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल भवन में
आयोजित ‘सामूहिक कविता लेखन’ सत्र की
है जिसमें क़रीब सौ-सवा सौ बच्चे थे और सत्र की अध्यक्षता बाल साहित्यकार डॉ मधु
पन्त कर रहीं थी.
बच्चों से जब कविता लेखन के लिए विषयों के सुझाव
मांगे गए तो ऐसे विषय सामने आए जो शिक्षा पद्धति, माता-पिता और समाज के
दबाव से प्रभावित थे. मसलन, ‘मम्मी पापा में लड़ाई’, ‘दंगा मत करो’, ‘परीक्षा का डर’, ‘मैं लड़की हूँ या लड़का हूँ’ आदि. इन विषयों में कोई
नयापन नहीं था, मौलिकता नहीं थी, चुनौती
नहीं थी. इनमें बचपना नदारद था और उम्र से पहले बड़े हो जाने के लक्षण दिखाई दिए.
लेकिन बातचीत कर बच्चों से जब जुड़ा गया, सब भूलकर कुछ देर के लिए जब उन्हें ख़ुद के भीतर उतरने को कहा गया, उनकी क्षमता से उन्हें परिचित कराया गया और अजब, अनूठी
बातों पर विचार करने को कहा गया तो ऐसे मौलिक और हैरतभरे विचार सुनने को मिले
जिन्हें सुनकर आप सूरदास के बाल कृष्ण को याद करने लगेंगे जो कहते हैं- ‘मैया मैं तो चंद खिलौनों लैहों’. ज़रा बच्चों के
कल्पनालोक से आये सुझाव सुनिए- भगवान का स्कूल में दाखिला हो जाए तो..., जंगल में जानवरों का फैशन शो करवा सकते हैं..., अगर
नाक और छींक में लड़ाई हो जाये कि हम दोनों में कौन बड़ा है तो..., या अगर गाय अंडे देने लगे और बछड़ा बांग...., सूरज को
ठण्ड में ज़ुकाम हो जाये तो..., या सूई की धागे संग शादी करा
दी जाए...इत्यादि इत्यादि।
यह वो मासूम दुनिया है जो सरल और विलक्षण है. इस
प्रकार की फैंटेसी या तो ख़ुद बच्चे रच सकते हैं या वे जिन्होंने अपना बचपना मरने
नहीं दिया। बच्चे जब इन कार्यशालाओं में जब कविता की देह गढ़ रहे थे तो उनकी भाषाई
गुल्लक अन्य भाषाओं से आए शब्दों के प्रति रुढ़िवादी नहीं दिखी. उनके शब्द प्रयोगों
से सहज हास्य की उत्पत्ति हो रही थी जो किसी के भी चेहरे पर हँसी लाने में सक्षम
है. मसलन, ‘गाय अगर जो दे दे अंडे फिर क्या
होगा भाई/ मुर्गी कैसे बछड़े देगी बात समझ न आई/ मुर्गा सोता रह जायेगा अपनी चादर
तान/ बैल सुबह क्या कुकड़ू कूँ की उठ कर देगा बांग’. या फिर-
‘चीटी बोली हाथी से तू करले मुझसे यारी/ मुझसे कोई
हल्का है न तुझसे कोई भारी’. या इसे पढ़िए- ‘सुई बोली चाकू से करवा दो मेरी शादी/ निपट अकेली रही आज तक हुई सूख कर
आधी.’ और इन पंक्तियों को भी देखिये- ‘जब
ईश्वर को स्वर्ग लोक में भला लगा भूगोल/ सोचे मैं भी पढने जाऊं, हो जाऊं एनरोल’.
बच्चों का यह ऐसा ‘जादुई नज़रिया’ है जहाँ तक हम और आप नहीं पहुँच सकते क्योंकि चीज़ों को सृजनात्मक दृष्टि
से नहीं देखने का हुनर हम खो चुके हैं. हम इन्द्रधनुष को प्रक्रिया के रूप में
देखते हैं लेकिन बच्चे इस पर लटक कर झूलते हैं, हम चूहे के
दांतों से डरते हैं लेकिन बच्चे उन दांतों को उधार मांग कर खुराफात करते हैं,
हम जंगल में ज़मीन ढूंढते हैं और बच्चे वहां जानवरों का फैशन शो
करवाते हैं, हम आस्था का ढोंग करते हैं लेकिन बच्चे ईश्वर को
अपना सहपाठी बना लेते हैं, हम धर्म को हथियार बनाते हैं उनके
यहाँ बचपना ही धर्म और बचपना ही ज़ात होती है.
बच्चे जाने अनजाने समरसता के उस स्तर तक पहुँच जाते
हैं जहाँ किसी ‘वाद’ का स्कोप
नहीं रहता किन्तु हम ताउम्र किसी न किसी ‘वाद’ में उलझे रह जाते हैं. असल में, हमारी कोशिश चीज़ों
को क्लिष्ट बनाकर बौद्धिकता के धरातल पर ले जाने की, दूसरों
को प्रभावित करने की होती है. इसी धरातल पर हम बच्चों को भी खड़ा कर देना चाहते
हैं. जिन विषयों पर कवितायेँ लिखी गई उन्हें बच्चों के भीतर से बाहर लाना बहुत
मुश्किल काम नहीं था. ज़रूरत केवल उनके साथ आत्मीयता स्थापित करने की थी, ख़ुद बच्चा बन जाने की थी. बच्चों संग किया गया यह स्नेहिल प्रयास दिखाता
है कि उनकी जिज्ञासा, सोच और इच्छाओं का बाल जगत बेहद विशाल
है बशर्ते उनकी आँखों पर अपनी उंगलियाँ न रखी जाएँ. यह चिंतनीय है कि दिन प्रतिदिन
बाल मन सिकुड़ रहा है. बच्चे अपनी दुनिया से कटते दिखाई दे रहे हैं. और इसका कारण
कहीं न कहीं हम हैं. उनके सरल मन से उपजे सवाल एकल परिवारों में उपेक्षा का शिकार
होकर कहीं कोने में दब से जाते हैं. किताबी रट्टे वाली शिक्षा पद्धति उनकी
सृजनशीलता को पनपने नहीं देती. उनकी क्षमता माँ बाप की झिड़की में अनजान रह जाती है
और उनकी चंचलता, चपलता ‘मैनर्स’
सीखते सीखते मुट्ठी बंद कर लेती है. सच तो यह है कि हम उनके साथ
साथी नहीं, शासक जैसा व्यवहार पसंद करते हैं. हम भूल जाते
हैं कि बाल मन बेहद संवेदनशील होता है जो ज़रा से आघात से कई तहों में सिमट जाता
है. उनकी मौलिकता, विनोदप्रियता, कल्पनाशीलता
को अपने अनुसार संचालित नहीं किया जा सकता.
यह दुर्भाग्य है कि जो माता पिता अपने बच्चे को 10 वर्ष की आयु में 22 वर्षीय युवक की भांति व्यवहार
करता देख ख़ुश होते हैं, वे अपने बच्चे के भीतर दम तोड़ता
बचपना नहीं देख पाते. बचपन का गला केवल बाल मज़दूरी या बाल यौन शोषण से ही नहीं
घुटता, वह परोक्ष रूप से हमारे द्वारा भी घोंटा जाता है. ‘हार’, ‘अंक’, ‘परीक्षा’,
‘फेल’ आदि शब्दों के जिस भय को बचपन से सफलता
पाने के लिए बाल मन में बिठाया जाता है वही भय उन्हें अपने ही घर में असुरक्षित कर
देता है. बहुत छोटे छोटे शब्दों को हम इतना बड़ा बना देते हैं कि बच्चा ताउम्र उनसे
भयाक्रांत रहता है. डेनमार्क के कवि ‘आर्थर कुद्नर’ अपने बेटे को संबोधित एक कविता में लिखते हैं- ‘सुनो
बेटे/ बड़े बड़े शब्दों से घबराना मत/ बहुत बड़े शब्द बहुत छोटी सी चीज़ का नाम होते
हैं/ और जो सचमुच विशाल हैं, बड़े हैं/ उनके नाम छोटे छोटे
होते हैं/ जैसे जीवन, शांति, आशा,
प्रेम, घर, रात, दिन...’
हमें समझना होगा कि अविश्वास, भय और तनाव के साए में किसी का विकास सम्भव नहीं है. विकास का अर्थ केवल
हाथ में लैपटॉप या मोबाईल आने तक सीमित नहीं है. अपनी उम्र को न जीना विकास के
आवश्यक चरण के छूट जाने जैसा है. तकनीक कुछ समस्याओं का हल भले हो किन्तु सभी का
नहीं हो सकती. उसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए अवकाश नहीं होता है. ऐसी स्थिति में
संतुलन स्थापित करने की बड़ा दायित्व बड़ों के सिर है. ज़रूरत केवल बच्चों को समझने
की, उनके स्तर पर उतरने की है. इसलिए अपनी आँखों से पर्दा
हटाकर बाल लोक को पहचानने की कोशिश कीजिए, उनकी क्षमताओं को
पहचानिए, स्नेह-संवाद से उनकी कौतुक प्रवृत्ति को बचाइये,
और उनकी कल्पनाओं को नया आकाश दीजिये. यक़ीन मानिए उनकी दुनिया बहुत
करिश्माई है एक दफ़ा उनके साथी बनकर तो देखिये.