आज़ादी
के बाद ऐसा कोई दशक नहीं रहा जब पूर्वांचल का विकास प्रश्न न बना हो. उत्तर प्रदेश
का यह पूर्वी अंचल अपनी ‘आंचलिक’ विशेषताओं की के कारण जितना प्रसिद्ध है,
दुर्भाग्य से उतना ही उपेक्षित भी. राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक
महत्वपूर्ण राज्य है या यूं कहें कि यह केंद्र के ‘केंद्र’ में रहता है. भारत के
पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी
चरण सिंह, राजीव गाँधी, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, और अटल बिहारी वाजपेयी सबका संसदीय
क्षेत्र उत्तर प्रदेश में ही रहा. लेकिन बावजूद इसके इस राज्य में, विशेषकर पूर्व प्रधानमंत्रियों
के संसदीय क्षेत्रों (फूलपुर, इलाहबाद, राय बरेली, बागपत, अमेठी, फतेहपुर, बलिया) में
विकास की वह गति नहीं दिखाई दी जो एक वी.आई.पी सीट के कारण होनी चाहिए थी. जहां तक
सवाल लखनऊ का है तो उसके विकास की वजह राज्य की राजधानी होना है न कि पूर्व
प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होना. अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बनारस सीट
भी इस फेहरिस्त में शामिल हो चुकी है. बनारस समेत पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश नरेन्द्र
मोदी से विकास की उम्मीद लगाए बैठा है. यदि उत्तर प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर नज़र
डालें तो पूर्वांचल इसके अत्यधिक पिछड़े इलाकों में आता है. विदेशी तो दूर यहाँ देशी
पूँजी निवेश भी बमुश्किल दिखलाई पड़ता है. कमोबेश सभी सत्ताधारी दल औद्योगिक विकास
के नाम पर कामगारों को झुनझुना थामाते आए हैं जिस कारण शेष उत्तर प्रदेश की तुलना
में यहाँ पलायन की दर अधिक है.
देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बनारस विश्वभर में साड़ियों के लिए
प्रसिद्ध रहा है. लेकिन चीन की प्रतिस्पर्द्धा और साड़ियों की नक़ल से यह उद्योग कई
वर्षों से संकट की स्थिति से जूझ रहा है. अपनी बुनकर कला के लिए विदेशों तक में
पहचाने रखने वाले बनारस, मऊ, आज़मगढ़, संत रविदास नगर, जौनपुर, मिर्ज़ापुर आदि इलाकों
के बुनकर तंगी के कारण हज़ारों की संख्या में सूरत और बेंगलोर की ओर पलायन कर रहे
हैं. अधिकाँश बुनकर प्रधानमंत्री के गुजरात राज्य के सूरत में ही पावरलूम में
सस्ती साड़ी बना रहे हैं. आंकडे बताते हैं कि 1995-56 में बनारस और चंदौली के 75
हज़ार से ज़्यादा कारखानों में करीब सवा लाख बुनकर कार्यरत थे. जबकि 2009-10 में कारखानों की संख्या घटकर पचास हज़ार
और बुनकरों की संख्या लगभग नब्बे हज़ार तक आ गई. यह आँकड़ा लगातार घट रहा है. यही
हाल विश्व भर में भारतीय हस्तकला की पहचान को स्थापित करने वाले भदोही के कालीन
उद्योग का भी है. यह क्षेत्र कभी अन्य राज्यों के कामगारों के लिए काम की पहली
पसंद हुआ करता था लेकिन सरकार की कुटीर उद्योग सम्बन्धी योजनाओं के अभाव के कारण
भदोही समेत शाहजहाँपुर और पीलीभीत का यह उद्योग अब दम तोड़ने लगा है. कच्चे माल की
बढ़ती लागत, मशीनों का बढ़ता दख्ल और बुनकरों की घटती संख्या के चलते कालीन के
निर्यात में पिछले कुछ वर्षों से भारी गिरावट देखी जा रही है.
पूरे पूर्वांचल की सडकें बदहाल हैं. बिजली में भारी
कटौती और जल आपूर्ति जैसी समस्याओं के कारण कोई यहाँ उद्योग लगाने की पहल नहीं करता.
यह दुर्भाग्य है कि कृषि की इस उपजाऊ भूमि को राजनीतिक दलों ने केवल सियासत के बीज
बोने के लिए इस्तेमाल किया है. ‘बाउल ऑफ़ शुगर’ के रूप में पहचान रखने वाले इस
क्षेत्र के देवरिया ज़िले में 1903 में पूर्वांचल की पहली चीनी मिल स्थापित की गई
थी. गोरखपुर मंडल में एक समय बाईस चीनी मिल चला करती थी लेकिन आज उनमें से अधिकाँश
बंद पड़ी हैं. किसानों को गन्ने के पूरे दाम नहीं मिल रहे. देवरिया, कुशीनगर,
बस्ती, महाराजगंज सभी जिलों में गन्ने की खेती कम हो चुकी है. प्रसिद्ध चित्रकार
अमृता शेरगिल के पिता सरदार उमराव सिंह के परिवार ने जिस सराय चीनी मिल की स्थपाना
की थी उस पर भी दो वर्ष पहले ताला लगा गया और पांच सौ से ज़्यादा कर्मचारी बेरोज़गार
हो गए.
इस प्रदेश की उच्च बेकारी और न्यून प्रति व्यक्ति आय इसके पिछड़े होने की सत्यता का
प्रमाण है. उत्तर प्रदेश सरकार की एक
रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 में पूर्वांचल के 28 जिलों की सालाना प्रति व्यक्ति आय
मात्र 13,058 रूपए है. यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आठ हज़ार रूपए कम तथा भारत की
प्रति व्यक्ति आय 38,048 रूपए (वर्ष 2011-12 में) की लगभग एक तिहाई
है. यदि देश के आर्थिक इतिहास पर नज़र डालें तो 1988-89 में भारत की जितनी प्रति व्यक्ति आय थी उतनी पूर्वांचल की अब है. इसका सीधा अर्थ हुआ कि यह क्षेत्र
अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद भारत से तेईस वर्ष पीछे चल रहा है. कुपोषण के कारण शिशु
मृत्यु दर के आंकड़ों में यह क्षेत्र चौंकाने वाले साक्ष्य प्रस्तुत करता है लेकिन
इसे किसी पार्टी के मेनिफेस्टो में शामिल नहीं किया जाता. मातृत्व मृत्यु दर में
अपने ही प्रदेश की औसत 258 के बरक्स बस्ती, गोरखपुर और देवीपाटन का औसत पचास से
साठ अधिक है किन्तु यह कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता. दिमाग़ी बुखार से गोरखपुर और
आसपास के जिलों में बच्चों की लगातार मृत्यु हुई लेकिन यहाँ की स्वास्थ्य सेवाएं
जस की तस बनी हुई हैं.
सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश से भारत के आठ प्रधानमंत्री आने के बावजूद इस
क्षेत्र की हालत इतनी बदतर क्यों है? क्यों किसानों की समस्या, श्रमिकों के पलायन,
कालीन उद्योग, पीतल उद्योग, चीनी मीलों पर पड़ते तालों को गंभीरता से नहीं लिया
गया? बनारस और कुशीनगर जैसे पर्यटन स्थल होने के बावजूद विकास यहाँ कछुआ चाल क्यों
चल रहा है? क्यों इतने वर्षों में यहाँ निवेश नहीं हुआ या निवेश की परिस्थितियां
पैदा नहीं की गईं? यह सीधा राजनीतिक दलों की काग़ज़ी योजनाओं, नाकारापन और अदूरदर्शी
सोच की ओर इंगित करता है. इस लोक सभा चुनाव में पहली बार पूर्वांचल अखबारों की
सुर्खियाँ में रहा. अपनी समस्याओं से निकलने के लिए उत्तर प्रदेश का यह पूर्वी
इलाक़ा अब काशी की ओर ताक़ रहा है.
लेकिन साठ महीनों में नरेन्द्र मोदी इस क्षेत्र में
क्या वह कर पाएंगे जो इतने वर्षों में नहीं हुआ? यह एक बड़ा सवाल है. दरअसल, प्रधानमंत्री
को अपना संसदीय क्षेत्र एक ऐसे विकास के केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा
जिसका प्रभाव ट्रिकल डाउन प्रक्रिया के तहत आस पास के इलाकों पर भी पड़े. उनके
सामने सबसे बड़ी चुनौती ‘रिवर, वीवर, सीवर’ की होगी. उन्हें अपने क्षेत्र के लघु-कुटीर
उद्योगों में पुनः जान फूंकनी होगी ताकि श्रमिकों का पलायन रोका जा सके. संभव है ऐसा
होने पर एक स्थिति ‘सूरत’ पलायन कर चुके बुनकरों की वापसी की भी बने इसलिए यहाँ सवाल
यह भी उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी वाकई चाहेंगे कि गुजरात से बुनकर वापिस
पूर्वांचल की ओर लौटें? ऐसे में नए प्रधानमंत्री संतुलन की स्थिति का निर्माण कैसे
करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा. उन्हें बुनकरों और मशीनों के द्वंद्व से निपटने के
साथ किसानों से किये गए उन वायदों को भी लक्ष्य करना होगा जिनका आश्वासन अमित शाह
और वे ख़ुद यहाँ की रैलियों में करते आये हैं. गुजरात के जिस मॉडल की तस्वीर दिखा
कर उन्होंने यहाँ विकास के दावे किए हैं उसे गुजरात से भिन्न भौगोलिक परिस्थिति में
वे कैसे लागू करते है, यह देखने वाली बात होगी.
(दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में 29 मई को प्रकाशित)
(दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में 29 मई को प्रकाशित)