Wednesday, September 11, 2013

जन्मतिथियों का अँधेरा

                     

हिंदी समाज की अवसरवादिता का भी जवाब नहीं। यहाँ अवसर के लिए मठ में अर्जी लगाने की परंपरा बरसों से चली आ रही है। इधर उसमे और भी तेज़ी आई है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की गत 9 सितम्बर को हिंदी साहित्य में आधुनिकता के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्मदिवस ख़ामोशी के साथ बीत गया। कोई संगोष्ठी नहीं। कोई लेख नही। कुछ नहीं। अखबार भी चुप रहे। क्रांति के नए दूत फेसबुक पर बमुश्किल एक दो पोस्ट दिखलाई पड़ीं। वैसे भी फेसबुक का इस्तेमाल प्रायः हिंदी साहित्यकारों द्वारा आरोप प्रत्यारोप के लिए किया जाता है या युवाओं द्वारा अपने पसंदीदा साहित्यकार, उच्च पदासीन व्यक्ति की फोटो पसंद करने और उन्हें अपनी कविताओं, टिप्पणियों से प्रभावित करने के लिए।                    वैसे भी भला भारतेंदु को याद करके क्या मिलता। कौन सा वो कहीं हमारी कविता, कहानी प्रकाशित करा देते। इसलिए हिंदी में अब जीवितों को याद किया जाता है। उनका जन्मदिन मनाने का यहाँ अद्भुत चलन है। बड़ा सा केक और बरसों बरस जीने की कामना के साथ बड़े साहित्यकारों से लेकर छत्रछाया के अभिलाषी तक सब उपस्थित रहते हैं। आगे के कार्यक्रमों सहित पुरस्कारों की योजनाओं के साथ गप्प हांकी जाती हैं और इस बीच फेसबुक दीवार के लिए फोटो संस्कृति चालू रहती है। नवोदित लेखकों के शानदार इंतज़ाम का कोई जवाब नहीं होता। इसकी एवाज़ में उनके भीतर एक ही आकांक्षा होती है- संग्रह की छपाई और उसकी बढ़िया समीक्षा! अब भला ये मुराद किसी मृत साहित्यकार को याद करके तो नहीं पूरी हो सकती। और भला भारतेंदु ने किया भी क्या है? केवल आर्थिक विषमता, स्वाधीनता, नारी शिक्षा, धार्मिक पाखण्ड, हिंदी भाषा आदि विषयों की नयी ज़मीन ही तो तैयार की थी। ‘नाटक’ के ज़रिये जनवादी स्वर ही तो मुखर किया था। नई चेतना को जागृत करना कौन बड़ा काम! किया सो किया...रात गई बात गई। अब हमारे लिए क्या कर सकते हैं, यह हिंदी का नारा है। 

                          

यहाँ बाज़ार के अनुकूल पूजा होती है। ग़नीमत है हिंदी विभाग भारतेंदु के नाटक पाठ्यक्रम में पढ़ा रहे हैं। मेरा भरोसा है कि पाठ्यक्रम में जगह बनाने के लिए भी भारतेंदु के साहित्य को विभिन्न विचारधारों से चार चार हाथ करने पड़े होंगे। विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में हिंदी विभाग अपनी उपस्थिति दर्ज कराने हेतु कभी कभार एक-दो संगोष्ठियों का आयोजन करा लेते हैं। वह भी अनुदान पर निर्भर करता है। तमाम बुद्धिजीवी जन्मतिथियों के मौकों पर चुप रहते हैं। और होना भी चाहिए, भला उपन्यासकार या कवि क्यों उनकी स्मृति में कार्यक्रम करवाए। यह तो नाटककार की ज़िम्मेदारी है, या जो नाटक पढाता है वो जाने। अब न तो हम उनके शिष्य, न उन्होंने हमारे विभाग की स्थापना की। और चलो करवा भी लें लेकिन मिलेगा क्या? ‘फेम’ भी तो कोई चीज़ है कि नहीं।                ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि किसी साहित्यकार की जन्मतिथि गुमनामी महसूसती हुई गुज़र गई हो। इससे पूर्व 9 अगस्त को मनोहर श्याम जोशी, 19 अगस्त को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, 22 अगस्त को हरिशंकर परसाई के लिए भी हिंदी समाज की यह ‘चुप्पा’ प्रवृत्ति देखने में यआई। दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्री राम कॉलेज में ‘मनोहर श्याम जोशी स्मृति व्याख्यान’ ज़रूर हुआ लेकिन यह व्याख्यानमाला जोशी जी के परिवार ने शुरू की और जब तक वो चाहेंगे यह चलेगी। यह बहुत बड़ी विडम्बना है कि हिंदी लेखक किताबों में बंद होकर रह जाते हैं। उन्हें पन्ने उलटते पलटते वक़्त ही याद जाता है। हाँ यदि कोई आलोचक कई दिनों से ख़ाली हो या अपने नाम पर थोड़ा अँधेरा पड़ता देख रहा हो तब वह किताबों में बंद पड़े लेखकों को बाहर निकालता है और उन्हें किसी विचारधारा या संस्था से जोड़कर अपने नाम को विवादों की रौशनी से पुनः बाज़ार में उतारता है। भारतेंदु ने ‘अंधेर नगरी’ में बाज़ार की जिस चकाचोंध से हमें चेताया था आज उसी बाज़ार के लिए हिंदी के अधिकांश कलमकार और बुद्धिजीवी बौराए हुए हैं।                                  'क्या मिलेगा’ की सोच पर कार्यक्रमों के आयोजन और भागीदारी से गुटों की कृपा संस्कृति को बढ़ावा मिला है। पार्टी में चढ़ावा देने वाले लोगों द्वारा गाये जाने वाले हैप्पी बर्थडे टू यू की जगह एक अर्थगर्भित व्याख्यान की सार्थकता या बौद्धिक विमर्श की तुलना ही नहीं की जा सकती। कितना अच्छा होता अगर हिंदी साहित्य के भव्य मंदिर में बैठे जीवित देवताओं के जन्मदिवस की पार्टियों में होने वाले खर्च की तुलना में थोडा भी महाविद्यालयों और सभागारों में एक गोष्ठी के आयोजन के लिए किया जाता। वरिष्ठ साहित्यकार अपने दायित्वों का निर्वाह करते और ‘नाम छपाई’ के पीछे भागने वाले युवा रचनाकारों को इन साहित्यकारों की लेखनी की धार से परिचित कराते। भारतेंदु ने जिस हिंदी समाज को नाटक खेलना सिखाया आज वो नौटंकी में इतना सिद्धस्थ है कि आलोचना के इस प्रवर्तक से आलोचना सीखकर आज एक दुसरे की फांक से रस निकालने में लगा है बाज़ार की मांग और अपनी गरज यहाँ लेखकों की जन्तिथियों को उजाले और अँधेरे में बांटती है। गुटबंदी हदबंदी कर देती है और लेखक विचारधाराओं से लड़कर पाठ्यक्रम में सीमित रह जाता है।  


3 comments:

  1. aaj ka katu yatharth ujagar kiya hai anjum ..........yahan yahi dastoor ban kar rah gaya hai jo bikta hai wo chalta hai aur kaun gade murde ukhade wala haal ho chuka hai isi karan aaj ki peedhi digbhramit hai jo janti hi nahi sahitya hai kya aur sahitya ke purodhaon ka mahattva kya hai .jab auchitya hi nahi kaha jaye to soch lo kis gart me ja raha hai aaj samaj aur sahitya.

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  2. विश्वास, रिश्ता, संस्कार, समाज.. बाज़ार में सब नंगे खड़े दिखाई पड़ते है..फिर भला साहित्य इससे क्यों दूर रहे? अंजुम भाई, साहित्य में बाजारवाद एक ऐसी विकृति है जो दरबारी संस्कृति पनपने का संकेत देती है.यह महज किसी के स्वार्थ को पूरा करने की जिद के तले रचनाएँ रचने को विवश करती है. आपकी चिंता वाजिब है. हम सबकी भावनाएं भी लगभग मिलती जुलती हैं.

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  3. इंसान अपनी आदतों का गुलाम है और जिस स्वभाव में खुदगर्जी,महत्वाकांक्षा ,क्रूरता शामिल है, उसमें खुदगर्जी सबसे ऊपर है .आत्म-प्रचार के लोभ और लालसा से मुक्त हो पाना आसान नहीं है ..इंसान का स्वभाव वही है , फिर चाहे क्षेत्र कोई भी हो ..सो ,साहित्य भी इससे कैसे बच सकता !

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