Monday, April 28, 2014

मर्यादा के बाहर


चुनाव के इस गर्म माहौल में प्रत्याशियों द्वारा प्रयोग की जा रही भाषा चिंता का विषय है। पप्पू, फेंकू, मधुमक्खी, नपुंसक, मूंछ/ पूंछ का बाल...। क्या यही कहने के लिए बची है भाषा? राजनीतिक आलोचना का कोश जिस प्रकार अशोभनीय और आपत्तिजनक शब्दों से आज भर गया है, उसने भाषा की उपयोगिता और उसके सरोकार पर प्रश्नचिह्न लगाया है। चुनाव प्रचार में मुद्दों की राजनीति दूर से हाथ हिलाती रही। अचार संहिता लागू होने के बावजूद जबान पर लगाम न कसना प्रमाणित करता है कि व्यक्तिगत टिप्पणियों के घेरे से बाहर निकलने में नेताओं की कोई रुचि नहीं है। आकाश की ओर थूकते और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने को मुख्य एजेंडे के रूप में पेश कर रहे प्रत्याशी भूल चुके हैं कि भाषा की मर्यादा लोकतंत्र की शुचिता का एक प्रमुख आधार होती है। उनके मुंह से निकला एक-एक शब्द उनके व्यक्तित्व का वजन घटा-बढ़ा सकता है। लेकिन पतनशील संबोधन के जिस धरातल पर खड़े होकर हमारे नेता अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दे रहे हैं वह निहायत छिछली और ओछी राजनीति का नमूना है। तू-तू, मैं-मैं की जो शैली आज इनके बीच प्रचलित है उससे निस्संदेह भाषा का अवमूल्यन, शब्दों का अर्थक्षरण हुआ है।

                                             


क्या ऐसी भाषा, जो व्यक्ति केंद्रित, आक्षेप आधारित हो, मर्यादा की सीमा लांघ चुकी हो और सामाजिक सरोकार के व्याकरण से अछूती हो, वह समाज को आंदोलित करने का दम भर सकती है? आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीतिक भाषा में जब ‘दो अर्थों का भय’ सताने लगे, तब द्विअर्थी संवादों से जनता के भीतर जोश नहीं भरा जा सकता। हां, उकसाया जरूर जा सकता है। ‘उकसाना’ ‘जोश’ से ज्यादा खतरनाक शब्द है। यह असंयम का प्रेमी है और संयम को कोने में फेंकने के लिए लालायित रहता है। इनके बीच भेद समझना बेहद आवश्यक है। मर्यादित और अमर्यादित भाषा के बीच बहुत महीन रेखा है। राजनीति की काई पर खड़े नेता कब इस पार से फिसल कर उस पार चले जाते हैं, पता नहीं चलता। लेकिन संकट तब आता है जब पता रहते हुए भी यह फिसलन जारी रहती है। जैसा वर्तमान में हो रहा है। टीका-टिप्पणी की नीति में भाषा का दुरुपयोग जानबूझ कर किया जा रहा है। क्या चुनाव में भाषा केवल किसी को उघाड़ने का हथियार है? या इसकी उपयोगिता इससे अधिक भी है?
मेरी पीढ़ी के युवाओं ने नेहरू और शास्त्रीजी को नहीं देखा। होश संभाला तो अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे, जिनके शब्दों और शैली से स्कूल जाते बच्चे राजनीति और शालीनता का आपसी संबंध प्रत्यक्ष रूप से समझते थे। फिर ऐसे प्रधानमंत्री आए, जिनकी आवाज एक दशक में बमुश्किल तीन बार सुनाई पड़ी। लेकिन पिछले कुछ समय से जो आवाजें कान फोड़ रही हैं उन्हें सुन कर अगर आने वाली पीढ़ी राजनीति और शालीनता का संबंध व्युत्क्रमानुपाती समझने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद, राहुल गांधी, नरेश अग्रवाल, बेनी प्रसाद, मुलायम सिंह, आजम खान, इमरान मसूद आदि नेताओं ने पिछले दिनों जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया, क्या उसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा कहा जा सकता है? क्या यह सौमनस्यता को बनाए रखने में सक्षम है?
धूमिल अपनी कविता में लिखते है:

‘शब्दों के जंगल में
हम एक दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
हम जुबान से कम
जूतों से ज्यादा पाटते थे।’

वैचारिक रक्तपात में एक-दूसर के लिए पाकिस्तान का एजेंट, खूनी पंजा, मौत का सौदागर, कुत्ते के बच्चे का भाई, सबसे बड़ा गुंडा, टुकड़े-टुकड़े करने की बात कहना एक-दूसरे को काटने और जूता मारने से कम नहीं है। यह दबंग, उत्तेजक और बाजारू भाषा वैमनस्यता को बढ़ावा दे रही है। ऐसी शब्दावली सुरक्षा की भावना को जख्मी करती है। राजनीति की यह असंयमित भाषा राजनीति के भयावह रूप का संकेत है। लोकतंत्र में नेताओं के भाषणों से ‘लोक’ शब्द का गायब होना लोकतंत्र को खतरे के निशान के करीब ले जा रहा है। कहते हैं कि भाषा सोच का और सोच व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होता है। अभिव्यक्ति में चरित्रहनन को प्राथमिकता दिया जाना चौड़ी छाती का नहीं, बल्कि नेताओं के संकुचित सोच और बौनेपन का प्रतिबिंब है।
राजनेताओं की भाषा में जनता के आगामी जीवन का ‘विजन’ होना चाहिए। अगर यह माना जाता है कि राजनीति के गलियारों से भाषा की सत्ता तय होती है तो इसमें भी संदेह नहीं कि भाषा के प्रयोग से भी राजनीति के समीकरण बदल जाते हैं। यही भाषा अहम् से वयं और वयं से अहम् तक की यात्रा की भागीदार बनती है। भाषा चाहे तो तनावपूर्ण चुनाव को तनावमुक्त और तनावमुक्त चुनाव को तनावयुक्त बना सकती है, यह उसके उपयोग पर निर्भर करता है। आज भाषा के नैतिक और राजनीतिक आयाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि चुनाव प्रचार केवल किसी के आने-जाने की आहट भर नहीं है। उस आहट के भीतर लोकतंत्र की गूंज कितनी है, यह भी देखा जाना आवश्यक है।
इन सबके बावजूद ऐसी भाषा पर ताली पीटने वाले लोग भारी तादाद में मौजूद हैं। दरअसल, यह माना जाने लगा है कि जनता लच्छेदार और फूहड़ भाषा में दिलचस्पी दिखाती है। सवाल है कि क्या ऐसी भाषा एक दिन की उपज है या राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण ने ऐसी भाषा को प्रचलित बनाया है? क्या दस वर्षों के मौन ने भी ऐसी भाषा को प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाई है या हम उस नई पीढ़ी के लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी भाषा के नए मुहावरे हम आए दिन निजी एफएम चैनलों से लेकर एमटीवी के कार्यक्रमों और फिल्मों में सुनते रहते हैं? इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।
क्या राजनीति में हर उबलती अभिव्यक्ति का प्रत्युत्तर देना आवश्यक है? संयम और सहनशीलता जैसे सिद्धांत अभी इतने निर्बल नहीं हुए हैं कि अशिष्ट और अमर्यादित भाषा के प्रत्युत्तर के लिए उसी स्तर पर उतरना पड़े। सहज, संतुलित और तार्किक भाषा का चमत्कार अब भी अशोभन वक्तव्य को पस्त करने का माद्दा रखती है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे कोश पर धूल जमती दिख रही है। राजनीति में दलों के बीच विरोध होना स्वाभाविक है, लेकिन विरोध का कटुता में तब्दील हो जाना निराशाजनक है। शब्दों से अपना सामर्थ्य दिखाने की इस होड़ में विकास और सुरक्षा जैसे शब्द मुंह ताक रहे हैं। व्यंग्य का स्थान अब ‘अभिधा’ ने ले लिया है, जहां लोकप्रियता के लिए बाजारू संप्रेषण में खुल कर गाली-गलौज देने से परहेज नहीं किया जा रहा। क्या चुनाव प्रचार की यह भाषा लोकतंत्र की संस्कृति के अनुरूप कही जा सकती है?
                                                                                                        (जनसत्ता में प्रकाशित)