Saturday, December 7, 2013

सम्मान विवाद और राजनीति

जनसत्ता में 2 दिसंबर 2013 को प्रकाशित लेख...

यह पहली मर्तबा नहीं, जब देश के सर्वोच्च सम्मान को लेकर भारत के कोने-कोने से अलग-अलग आवाजें उठ रही हैं। इससे पहले भी भारत रत्न से लेकर राजीव गांधी खेल रत्न तक की घोषणा के बाद उन लोगों के लिए रस्साकशी हुई जिन्हें इसका असल हकदार माना गया या जिनकी अनदेखी की गई।
सवाल है कि सम्मानों में राजनीति करते वक्त, क्या सरकारों को अपनी ओर उठने वाली अंगुलियों का अंदेशा नहीं रहता या कहें कि अब किसी बात से फर्क नहीं पड़ता। राजीव गांधी खेल रत्न की तो विवादों में रहने की परंपरा-सी बन चुकी है और पद्म पुरस्कारों पर नजदीकियों की माया हर बार देखी जाती है। जहां तक सवाल भारत रत्न का है तो इसकी भी गरिमा पर समय-समय पर सवाल उठे हैं। इसे देने के लिए कभी सरकारें जल्दबाजी में दिखाई पड़ीं तो कभी लंबे इंतजार के बाद दिया गया। 1966 में मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा के बाद बाबा साहब आंबेडकर को यह पुरस्कार 1990 में जाकर मिलता है तो पटेल को 1991 में और अबुल कलाम आजाद को 1992 में। जवाहरलाल नेहरूऔर इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए ही अपने नाम पर राजी हो जाते हैं।
हालांकि इंदिरा गांधी को मिले सम्मान की गरिमा इमरजेंसी के वक्त बचती नहीं और देश भर में उनके खिलाफ नारे लगते हैं। अमर्त्य सेन की विद्वत्ता भारत से पहले स्वीडन पहचानता है तो सुभाष चंद्र बोस के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को बीच में आना पड़ता है। एमजी रामचंद्रन से लेकर कई नाम ऐसे हैं जिन पर एकमत नहीं हुआ जा सकता। वहीं दूसरी तरफ प्रसिद्ध कत्थक नृत्यांगना सितारा देवी, सितारवादकउस्ताद विलायत खां और इतिहासकार प्रो. रोमिला थापर आदि कई हस्तियों ने पद्म पुरस्कार या तो यह कह कर लौटा दिया कि चयन समिति को कला का सम्मान करना नहीं आता या यह टिप्पणी की कि उन्होंने हमारे कार्य का मूल्यांकन कैसे किया।
प्रश्न है कि इन पुरस्कारों के लिए चयन समिति कोई आधार बनाती है? अगर हां तो फिर यह विवाद क्यों? यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में अधिकतर पुरस्कारों का आधार विदेश में आपकी लोकप्रियता और विदेशी सम्मान बनते हैं। 2001 के बाद भारत रत्न सात वर्षों बाद दिया गया। क्या सरकार को देश में एक भी ऐसी शख्सियत नहीं मिली जिसे इस लायक समझा जा सके? जरा याद कीजिए, पिछला सर्वोच्च सम्मान, जो 2008 में मिलता है और इसके बाद 2013 में। दोनों दफा चुनावी वर्ष से एक वर्ष पूर्व। पिछली दफा यह इत्तिफाक हो सकता है लेकिन इस बार ऐसा नहीं लगता। दरअसल, राजनीतिक दल यह मानने लगे हैं कि सम्मान की हवाओं से भी राजनीति का चूल्हा सुलग सकता है। शायद इसीलिए सचिनमय हवाओं का फायदा उठा कर सरकार ने खिलाड़ियों को भारत रत्न दिए जाने के पट खोल दिए।
हालांकि मेजर ध्यानचंद के लिए भारत रत्न दिए जाने की आवाजें देश में हमेशा उठती रहीं, जिसके वह हकदार भी हैं। लेकिन खिलाड़ी के तौर पर यह सचिन को मिला, इसका विरोध नहीं होना चाहिए। संकोच तब होने लगता है जब क्रिकेट के साथ नाम मुकेश अंबानी और विजय माल्या जैसे कॉरपोरेट जगत के लोगों का जुड़ने लगता है और कॉरपोरेट जगत की गंध सीधे लुटयंस जोन तक पहुंचती है। यह सचिन बनाम ध्यानचंद नहीं है, यहां सवाल पहचान और सम्मान के बदलते स्वरूप का है। यह सही है कि सचिन अपने समय के महानतम बल्लेबाज हैं। उन्होंने उस दौर में खेलना शुरू किया जब देश में अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलने की पृष्ठभूमि बन रही थी। 1991 के बाद वैश्वीकरण और नवउदारवाद की हवाएं तेजी से बहने लगीं और उपभोक्तावादी संस्कृति की जड़ें गहरी होती गर्इं। टीवी युग में सचिन घर से लेकर बाजार तक की लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचे। पूरा देश एक साथ खड़ा हो जाता था जब सचिन के बल्ले से रन निकलते थे।
अब थोड़ा पीछे चलिए और कल्पना कीजिए उस युग की, जब ध्यानचंद का जादू बगैर टीवी संस्कृति के औपनिवेशिक काल से दो-दो हाथ करते भारत में सिर चढ़ कर बोलता था। फटे जूते तंग करते तो नंगे पांव ही विरोधी टीम के पसीने छुड़ा देते। एक झलक पाने को घंटों-घंटों लोग इंतजार करते थे। ध्यानचंद के लिए क्या एम्सटर्डम, क्या सैन फ्रैंसिस्को और क्या बर्लिन। बकौल डॉन ब्रेडमन, ध्यानचंद गोल ऐसे दागते थे जैसे रन बना रहे हों। हिटलर ने तो उन्हें जर्मन सेना में कर्नल पद की पेशकश भी की थी। लेकिन जिस हिटलर को ‘नहीं’ शब्द सुनना पसंद नहीं था उसे एक हजार से अधिक गोल दागने वाले इस खिलाड़ी ने साफ  मना कर दिया। विश्व भर के मीडिया में ध्यानचंद-हिटलर के बीच हुआ संवाद अमर हो गया।
यह अकारण नहीं था कि ध्यानचंद की लोकप्रियता अपने खेल और व्यक्तित्व के कारण हिमालय से ऊंची हो चुकी थी। ध्यानचंद और हॉकी एक दूसरे के पर्याय थे। ऐसे खेल और विपरीत परिस्थितियों में ऐसी खेल-भावना होने के बावजूद अगर ध्यानचंद भारत रत्न पाने वाले खिलाड़ी नहीं बने तो साफ  हो जाता है कि सत्ता की गलियों में बाजार की लोकप्रियता का स्थान प्रमुख है। इससे इतर सब गौण है। यही कारण है कि सचिन को दिया गया यह सम्मान जल्दबाजी में लिया गया फैसला जान पड़ता है। इस बात की पुष्टि केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला के बयान से भी हो जाती है। जब उनसे कुछ कहते न बना तो उन्होंने यही कह दिया कि ध्यानचंद सभी सम्मानों से उपर हैं और उनके नाम से देश में कई सम्मान दिए जाते हैं। इस बयान की चारों ओर निंदा हुई। लेकिन इससे इस बात के संकेत तो जरूर मिलते हैं कि सरकार द्वारा विभिन्न पुरस्कारों के मद्देनजर प्रतिभा का आकलन करने के लिए जो समितियां बनाई जाती हैं वे किस मानसिकता के साथ नामांकनों पर विचार करती हैं।
नियमों में बदलाव के बाद मेजर ध्यानचंद का नाम दौड़ में आगे था, पर तेंदुलकर की विदाई के चंद मिनटों बाद देश की लहर को भांपते हुए प्रथम भारत रत्न खिलाड़ी के तौर पर उनके नाम की घोषणा कर दी गई। शायद सरकार पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और अगले वर्ष के लोकसभा चुनाव में ‘सचिन, भारत रत्न और वोट’ को एक साथ जोड़ कर देख रही हो। लेकिन सच्चाई यह है कि महंगाई और भ्रष्टाचार पर पुरस्कार की घोषणा कभी भारी नहीं पड़ सकती।
पुरस्कार या सम्मान, अगर सरकार की ओर से दिए जाने हैं तो उनका पैमाना स्पष्ट होना चाहिए। केवल ‘असाधारण या विशिष्ट सेवा’ कह देने भर से योग्यता निर्धारित नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं है कि साहित्य के क्षेत्र में अभिवृद्धि के लिए अभी तक किसी ने विशिष्ट सेवा प्रदान नहीं की लेकिन आज तक किसी को भारत रत्न नहीं दिया गया और पद्म पुरस्कारों के लिए भी गिनती के लोगों को इसके योग्य समझा गया। दिन-प्रतिदिन आरटीआइ की बढ़ती संख्या पुरस्कारों के अवमूल्यन पर सवाल खड़ा कर रही है। 1995 के बालाजी राघवन बनाम भारत सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय ने भी माना था कि सरकारों ने राष्ट्रीय अलंकरण ऐसे लोगों को भी प्रदान किए जो इसके योग्य नहीं हैं, जिन्होंने राष्ट्र-हित में कोई योगदान नहीं दिया। न्यायालय ने उस वक्त माना था कि इसकी चयन प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण है, जिसे सही दिशा में लाने के लिए कुछ सुझाव भी दिए थे, साथ ही कहा था कि ऐसे गरिमापूर्ण अलंकरण सीमित संख्या में ही दिए जाने चाहिए।
अदालत के इस निर्णय और सुझाव के बावजूद इन अलंकरणों की संख्या शायद ही सौ से नीचे रहती हो। इतना ही नहीं, जरा याद कीजिए वर्ष 2007, जब राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने चयन में अनियमितताओं के चलते प्रधानमंत्री कार्यालय को पद्म सम्मानों की फाइल लौटा दी थी। यह दर्शाता है कि राजनीतिक पार्टियों ने अपना हित साधने के लिए पुरस्कारों तक का राजनीतिकरण कर दिया है। इसीलिए उद्योग के क्षेत्र में संत सिंह चटवाल सरकार को ज्यादा विशिष्ट जान पड़ते हैं और कला के क्षेत्र में सैफ अली खां के योगदान को एक सौ तीन वर्ष के शास्त्रीय गायक उस्ताद अब्दुल राशिद खां के योगदान से अधिक विशिष्ट मान लिया जाता है।
दरअसल चयन की कसौटी पारदर्शिता के साथ तय होनी चाहिए। पारदर्शिता बरकरार रखने के लिए सबसे पहले ‘विशिष्ट सेवा’ को विस्तृत तौर पर परिभाषित किया जाना जरूरी है। सरकार यह तय करे कि क्या यह सम्मान केवल असाधारण प्रतिभा को दिया जाना है या विभिन्न क्षेत्रों में विशिष्ट सेवा के लिए या देश-हित में सर्वोच्च मूल्यों की स्थापना करने वाले विशिष्ट सेवी को दिया जाना है।
पुरस्कारों की गरिमा बनाए रखने के लिए संख्या सीमित हो ताकि पुरस्कार बंटें नहीं, सम्मानस्वरूप मिलें। साथ ही यह सुनिश्चित किया जाए कि चयन समिति सरकारी दबाव और अन्य पूर्वग्रहों से मुक्त रहे। राज्यों की समितियों द्वारा भेजे गए नामांकनों पर धर्म, जाति या केंद्र-राज्य संबंध से ऊपर उठ कर समान रूप से विचार होना चाहिए।
वर्ष 1955 में भारत सरकार ने जिन उद्देश्यों के साथ चार अलंकरणों की शुरुआत की थी उनकी परिभाषा में आए बदलाव का प्रभाव ट्रिकल डाउन थ्योरी की भांति अन्य सरकारी पुरस्कारों पर भी देखने को मिल रहा है। भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान पर कभी कोई दल शांत बैठेगा ऐसा वर्तमान परिस्थितियों को देख कर लगता नहीं, क्योंकि राजनीति में सम्मान केवल सम्मान नहीं होता वह सत्ता की अहमियत का भी निर्धारण करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मौजूदा विवाद सचिन तेंदुलकर जैसे विलक्षण खिलाड़ी को लेकर हुआ।
कहना मुश्किल है कि ध्यानचंद और सचिन को अगर संयुक्त रूप से सम्मानित किया जाता तो कोई विवाद नहीं उठता, क्योंकि राजनीति का ऊंट करवट बदल कर बैठता है। अटल बिहारी वाजपेयी, कांशीराम, कर्पूरी ठाकुर, करुणानिधि जैसे दर्जनों नाम विवादों को भविष्य में हवा देते रहेंगे। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ध्यानचंद और सचिन, दोनों ही, एक खिलाड़ी की चमड़ी में इंसानियत का नाम है। उम्मीद है कि हॉकी के जादूगर को बाबा साहब आंबेडकर, सरदार पटेल और अबुल कलाम आजाद की तरह लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा और न ही विश्वनाथन आनंद की अनदेखी होगी।

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