फुटबॉल के मक्का कहे जाने
वाले ब्राजील में फीफा विश्वकप शुरू हो चुका है. अगले एक महीने तक ब्राजील में
‘ब्राजूका’ सबको नचाएगी. सडकों पर प्रदर्शन, रैलियों और हड़ताल के बावजूद सारी
टिकिट बिक चुकी हैं और लाखों की संख्या
में विदेशी पर्यटक ‘फुटबॉल के देश’ में पहुँच रहे हैं. असल में फुटबॉल ब्राज़ील की अस्मिता
की तरह है. विश्व के अधिकाँश देश के लोगों का ब्राज़ील से परिचय फुटबॉल के ज़रिये ही
हुआ है. यह अकेला ऐसा देश है जिसने हमेशा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया है. पांच
बार (1958, 1962, 1970, 1994 और
2002 में)
विश्व चम्पियन बन इस लैटिन अमेरिकी देश ने पूरे विश्व में अपनी ‘सॉकर आइडेंटिटी’
बनाई है. कहा जाता है कि ब्राज़ील के खिलाड़ी फुटबॉल को पीछे नहीं भागते बल्कि
फुटबॉल ब्राजील के खिलाड़ियों के पीछे भागती है. इस
खेल के प्रति यहाँ की दीवानगी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मैच के
वक़्त कामगार अपनी टीम को देखने के लिए अपना काम रोक देते है. बैंक अपने समय से तीन
घंटे पूर्व बंद हो जाते हैं. जगह जगह टीवी स्क्रीन लगा दिए जाते हैं ताकि जो जहां
है वहीँ से अपने खिलाड़ियों की लय पर थिरक सकें. दरअसल, फुटबॉल ब्राजील के लिए किसी
जज़्बे से कम नहीं है. फुटबॉल यहाँ ‘पैशन’ भी है ‘प्रोफेशन’ भी.
लेकिन ‘ब्राज़ील’ की तस्वीर में केवल ‘फुटबॉल’ की दक्षता का रंग नहीं है. इसकी तस्वीर के
कुछ और रंग भी जो पिछले दिनों दिखलाई पड़े. दरअसल, ब्राजील
सरकार ने जब इस आयोजन का जिम्मा उठाया था तब उसे उम्मीद थी की 2014 तक उसकी
अर्थव्यवस्था में सुधार हो जायेगा और फुटबॉल की घर वापसी से यहाँ के नागरिकों के
चेहरे पर भी ख़ुशी आएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यातायात, स्वास्थ्य सेवाओं, अशिक्षा,
बेरोज़गारी और महंगाई जैसी समस्याओं पर फीफा आयोजन को तरजीह दिए जाने पर उसे अपने
ही नागरिकों का विरोध झेलना पड़ा. आयोजन पर हुए अरबों डॉलर ख़र्च के ख़र्च को यहाँ के
लोग अपनी उपेक्षा से जोड़ कर देख रहे हैं. हालांकि, फुटबॉल के प्रति यहाँ की जनता
के मन में जो प्रेम है उस पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन वे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं
की क़ीमत पर ऐसे भव्य आयोजन को ग़ैरज़रूरी मान रहे है. पिछले कई महीनों से गलियों,
सड़कों, विश्वविद्यालयों में यहाँ तक कि विश्वकप उद्घाटन वाले दिन भी स्टेडियम के
बाहर समस्याओं से मुंह फेरती सरकार के प्रति लोगों का रोष दिखलाई पड़ा. वहां की
पुलिस द्वारा जिस तरीक़े से विरोध दमन की कार्रवाई की गई उसकी तसवीरें अखबार और सोशल
मीडिया पर देखी जा सकती है. सवाल जायज़ है कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजन के
लिए देश अपनी साख हेतु स्टेडियम से लेकर रोड, हवाई अड्डे, होटल बनवा सकता है तो
अपनी बुनियादी सुविधाएं दुरुस्त क्यों नहीं कर सकता?
इन सबके बीच एक वर्ग
ऐसा भी है जो ब्राज़ील में विश्वकप की घोषणा के बाद से ही इस उत्सव का इंतज़ार कर
रहा था. यह वर्ग ब्राज़ील की ‘सेक्स टूरिज़्म’ की छवि का वह हिस्सा है जो लाखों
लोगों के लिए रोज़गार का साधन बना हुआ है. वेश्यावृत्ति के क़ानूनी रुप से वैध होने
के कारण यहाँ आठ लाख से अधिक वेश्याएं इस आयोजन को अपने लिए अच्छा मान रही हैं. उभरती
हुई अर्थव्यवस्था के बावजूद ग़रीबी, अशिक्षा, और बेरोज़गारी के चलते यहाँ कम उम्र
में ही युवक युवतियां सेक्स टूरिज़्म को बढ़ावा देने में संलग्न हो जाते हैं. यह
सच्चाई है कि किसी भी देश में अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजनों के दौरान खुलेआम या चोरी
छिपे सेक्स टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है लेकिन यह भी झूठ नहीं कि इसी टूरिज़्म की आड़ में
बाल यौन कर्म और मानव तस्करी का ख़तरा भी चरम पर रहता है. भारत में देह व्यापर भले
ही गैरकानूनी है लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सेक्स
वर्कर्स की सक्रियता देखने को मिली थी. चूंकि ब्राजील में इसे क़ानूनी मान्यता है,
इसलिए कई मानव अधिकार संगठनों को यह आशंका है कि विश्वकप के दौरान बाल यौन उत्पीड़न
को इससे बढ़ावा मिल सकता है. आंकड़ों की मानें तो 2006 में जर्मनी और 2010 में दक्षिण अफ्रीका के फुटबॉल विश्वकप आयोजनों के दौरान बाल
शोषण के मामलों में तीस से चालीस फीसदी बढ़ोतरी हुई थी. वहीं ब्राजील सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के खिलाफ अपराध की सरकारी
हॉटलाइन पर पिछले साल उन्हें सवा लाख से ज़्यादा फोन आए जिसमें से 26 फ़ीसदी शिकायत
यौन शोषण की थी. और तो और ज्यादातर मामले ब्राजील के समुद्री तटों के आसपास के थे
जहां अत्यधिक संख्या में पर्यटक आते हैं. सवाल उठता है कि जब सामान्य स्थति में यह
आँकड़ा इतना अधिक है तो क्या विश्वकप के दौरान आने वाले लगभग पांच लाख से अधिक
सैलानियों से इस ख़तरे का भय और नहीं बढ़ता, वो भी तब जब इस देश पर ‘सेक्स टूरिज़्म’
का टैग चस्पा हो. फिर एक सवाल यह भी है कि क्या इन मामलों को ऐसे देश में रोका जाना
आसान होगा जहां महिलाओं को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखा जाता हो?
अतीत में जहां की सरकरी वेबसाइट पर महिलाओं को वेश्यावृत्ति के टिप्स दिए जाते रहे हो, क्या वहां इस प्रकार की समस्या की उपज सरकार को ख़ुद कठघरे में खड़ा नहीं करती? ब्राजील का बड़ा वर्ग मानता है कि जबसे वेश्यावृत्ति कानून आया है तबसे स्त्रियों के शोषण के साथ साथ बाल यौन शोषण में बढ़ोतरी हुई है. इसके अपने अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन बीते दिनों ऐसी कई रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं जिनमें यह कहा गया कि अकेले ब्राजील में विशेषकर पूर्वी ब्राजील और अमेज़न बेसिन के क्षेत्र में लगभग ढाई से पांच लाख बच्चे सेक्स पर्यटन की गिरफ्त में हैं. इनमे सबसे ज्यादा संख्या बच्चियों की है. यदि यह आँकड़ा सही है तो लाखों जिंदगियों के भविष्य के लिए चिंतनीय है.
अतीत में जहां की सरकरी वेबसाइट पर महिलाओं को वेश्यावृत्ति के टिप्स दिए जाते रहे हो, क्या वहां इस प्रकार की समस्या की उपज सरकार को ख़ुद कठघरे में खड़ा नहीं करती? ब्राजील का बड़ा वर्ग मानता है कि जबसे वेश्यावृत्ति कानून आया है तबसे स्त्रियों के शोषण के साथ साथ बाल यौन शोषण में बढ़ोतरी हुई है. इसके अपने अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन बीते दिनों ऐसी कई रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं जिनमें यह कहा गया कि अकेले ब्राजील में विशेषकर पूर्वी ब्राजील और अमेज़न बेसिन के क्षेत्र में लगभग ढाई से पांच लाख बच्चे सेक्स पर्यटन की गिरफ्त में हैं. इनमे सबसे ज्यादा संख्या बच्चियों की है. यदि यह आँकड़ा सही है तो लाखों जिंदगियों के भविष्य के लिए चिंतनीय है.
इन सबके बावजूद लेतिन अमेरिकी देशों में ब्राज़ील ऐसों देशों में शुमार है जो
महिलाओं और बच्चों की सुविधाओं और कानून व्यवस्था का सबसे अधिक ध्यान रखता है. आज
ब्राज़ील ‘सेक्स टूरिज्म’ में कमी लाना चाहता है. इस दिशा में उसने कुछ क़दम भी
उठाये हैं और बदलाव भी देखने को मिला है. लेकिन अभी भी ‘देह और काम’ की भाषा यहाँ
आम है. नहीं पता इस आयोजन से उसकी अर्थव्यवस्था को कितना फायेदा मिलेगा लेकिन इस
आयोजन में बाल यौन उत्पीड़न की समस्या से निपटना उसके लिए एक चुनौती अवश्य होगी. देश
की पहली महिला राष्ट्रपति बनकर ‘डिलमा रूसेफ़’ ने ब्राजील में नए युग का सूत्रपात
ज़रूर किया है लेकिन अपने कार्यकाल में उनकी कामयाबी इस आयोजन से ज्यादा अपने देश
की महिलाओं को ‘देह’ से मुक्त रोज़गार उपलब्ध कराने तथा बच्चों को ‘सेक्स टूरिज़्म’ की जगह ‘स्टडी टूरिज़्म’ का हिस्सा बनाने में होगी.
फुटबॉल यहाँ की धरोहर ज़रूर है लेकिन बच्चों, महिलाओं, स्वास्थ्य और शिक्षा से बड़ी
नहीं है. फुटबॉल ब्राजील की संस्कृति का हिस्सा है. अपनी समस्याओं से लड़ते हुए ऐसे
आयोजन कराना वैश्विक स्तर पर उसे स्थापित भी करेगा लेकिन यह भी सच है कि ग़रीबी से
उठता असंतोष खेल से शांत नहीं होता, न ही आर्थिक नीतियां ऐसे आयोजनों से वापिस
पटरी पर आती हैं.
बहरहाल, ‘फ़ीफ़ा वापस जाओ’ नारों के साथ बाहरी भव्य आवरण ओढ़े इस आयोजन की शानदार शुरुआत तो हो चुकी है और यह संपन्न भी उतनी रोमांचक तरीक़े
से होगा जैसा अब तक होता आया है लेकिन सामाजिक अस्थिरता के बीच ऐसे आयोजन सीनेट और
संसद के लिए कैसे दिन लेकर आएंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता. हाँ, इतना ज़रूर है कि
2016 में होने वाले ओलिंपिक खेलों से पहले यदि ब्राज़ील सरकार इस रोष से कुछ नहीं
सीखी तो ओलिंपिक और ख़ुद उसके लिए यह किसी भारी संकट से कम नहीं होगा.
फीफा फुटबाल वर्ल्डकप और ब्राज़ील की अस्थिर सामाजिक स्थिति पर एक अच्छा विश्लेषणात्मक लेख है। पढ़ कर अच्छा लगा ।
ReplyDeleteआईना दिखाता एक बेहद सशक्त आलेख ………आज जरूरी है पहले देश की समस्याओं को दूर करना फिर आगे बढना जिस पर बेह्द गहराई से प्रकाश डाला गया है ।
ReplyDeleteWonderful post! And I agree.
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