Wednesday, July 23, 2014

इच्छामृत्यु : मजबूरी भी मानवता भी



मरते हैं आरजू में मरने की , मौत आती है पर नहीं आती

मिर्जा ग़ालिब का यह शे कभी इच्छामृत्यु के संदर्भ में भी पढ़ा जाएगा, सोचा नहीं था। विश्व में कई मुद्दे ऐसे हैं जो मूर्छित अवस्था में रहते हैं। वे जब जब होश में आते हैं, व्यापक बहस को जन्म देते हैं। ऐसा ही एक संवेदनशील विषय है- इच्छामृत्यु, जिसने विश्व भर की सरकारों और न्यायालयों के सामने समय-समय पर चुनौती खड़ी की है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र एवं राज्य सरकारों से अपनी राय देने के लिए कहा है. दरअसल, यह मुद्दा बेहद विरल परिस्थितियों की उपज है जहां दोनों ओर मजबूरी भी है और मानवता भी। प्रत्येक देश अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक और नैतिक आधारों के आलोक में इस पर विचार करता है। यही कारण है कि इस विषय पर कभी एक राय बनती नहीं दिखी। 
सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर हमेशा विवाद रहा है. निष्क्रिय दयामृत्यु यानी लाइलाज परिस्थिति में इलाज बंद कर देना या जीवनरक्षक प्रणालियों को हटा देना. इसे दुनिया के कई देशों में कानूनी मान्यता है लेकिन यदि मरीज मानसिक तौर पर अपनी मौत की मंजूरी देने में असमर्थ हो तब उसे इरादतन दवाईयों द्वारा मृत्यु देना  पूरी दुनिया में गैरकानूनी है। वहीँ सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज की पूर्ण मंजूरी के बाद डॉक्टर दवाई देकर जीवन पर पूर्ण विराम लगाते हैं. दुनिया में सबसे पहले आॅस्ट्रेलिया के उत्तरी राज्य ने 1996 में इच्छामृत्यु को वैध घोषित किया था, लेकिन 1997 में पुन: विमर्श के बाद इस फैसले को वापस ले लिया गया। फरवरी 2014 में जब बेल्जियम आयु संबंधी समस्त प्रतिबंध हटा कर अपने सभी नागरिकों को ऐसा अधिकार देने वाला विश्व का पहला राष्ट्र बना, तो इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए। मसलन, प्रायः जब यह माना जाता है कि  बच्च्चे आर्थिक और भावनात्मक मामलों में अहम फैसले लेने में परिपक्व नहीं होते तो फिर  वे अपने जीवन के अंत का स्वैच्छिक और स्वतंत्र निर्णय कैसे ले सकते हैं? क्या पांच वर्षीय बालक उस परिस्थिति पर ठीक वैसे ही विचार कर सकता है जैसा सोलह वर्ष का किशोर कर सकता है? क्या दोनों की समझ और परिपक्वता का स्तर एक ही होता है? अगर नहीं तो फिर ऐसे गंभीर कानून में आयु सीमा का निर्धारण क्यों नहीं किया गया। ऐसे कई सवाल है.
बेल्जियम सहित नीदरलैंड्स और लक्जमबर्ग में भी सक्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी गई है, जिसके लिए बेहद कड़े कानूनों का प्रावधान है। यहां बीमारियों की सूची तैयारी की गई है और एक खास आयोग को इच्छामृत्यु के फैसले तय करने का अधिकार दिया गया है. फ्रांस और कनाडा में लाइलाज बीमारी से ग्रस्त रोगी की जीवनरक्षक प्रणाली  मरीज के अनुरोध पर डॉक्टर हटा सकते हैं, पर रोगी किसी की सहायता से आत्महत्या की मांग नहीं कर सकता। जबकि स्विट्जरलैंड में 1937 से ही असिस्टेड सुसाइड’ (डॉक्टर के सहयोग से आत्महत्या) की मंजूरी मिली हुई है। लेकिन चिकित्सक यदि स्वार्थ स्वरूप ऐसा करता पाया गया तो उसे अपराध की श्रेणी में रखने का भी प्रावधान है। नीदरलैंड और बेल्जियम में भी चिकित्सक के सहयोग से आत्महत्या को वैधानिक माना जाता है। अमेरिका में सक्रिय इच्छामृत्यु प्रतिबंधित है, पर ओरेगॉन, वाशिंगटन और मोंटाना राज्य में अगर रोगी की मांग पर जीवनरक्षक उपचार बंद कर दिया जाए तो डॉक्टर दोषी नहीं माने जाएंगे।
दरअसल, इच्छामृत्यु बेहद जटिलताओं से भरा विषय है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। 

                      

भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या धारा 304 के तहत और सहयोगात्मक आत्महत्या को धारा 306 के तहत अपराध माना गया है। भारत में समय-समय पर इस पर कई तरह की राय सामने आई है। लेकिन अरुणा शानबाग प्रकरण से इस मुद््दे पर बहस में तीव्रता आई। सत्ताईस नवंबर 1973 को वार्ड बॉय मोहनलाल ने नर्स अरुणा को गले में जंजीर बांध कर अप्राकृतिक दुष्कर्म का शिकार बनाया। जंजीर के कारण अरुणा के दिमाग की तरफ रक्त और प्राणवायु का संचार बंद हो गया। तत्कालीन कानूनी व्यवस्था और सजा के लचर प्रावधानों के चलते आरोपी सात साल में रिहा हो गया, लेकिन अरुणा तब से लेकर आज तक लगभग मृत अवस्था में मुंबई के अस्पताल में भर्ती हैं।

वर्ष 2011 में तत्कालीन न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अरुणा के लिए दायर इच्छामृत्यु की याचिका को खारिज करते हुए भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को गैरकानूनी करार दिया था। हालांकि असामान्य परिस्थितियों में निष्क्रिय दयामृत्यु या इच्छामृत्यु की अनुमति दी जा सकती है, लेकिन जब तक संसद इस बारे में कोई कानून नहीं बनाती तब तक निष्क्रिय और सक्रिय दोनों प्रकार की इच्छामृत्यु को अवैधानिक ही माना जाएगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार, और वे सब पहलू, जो जीवन को अर्थपूर्ण और जीने-योग्य बनाते हैं, शामिल हैं। कई लोगों ने गरिमामय जीवन न होने का हवाला देकर तर्क किया कि अगर जीने का अधिकार है तो मरने का भी होना चाहिए। लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में साफ  किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन के अधिकारमें मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। ऐसा करने पर आइपीसी की धारा 306 और 309 के तहत आत्महत्या का अपराध माना जाएगा।
आत्महत्या के प्रयास के लिए दोषी माने जाने को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं। मसलन बेबसी, लाचारी या अवसाद की स्थिति में किए गए खुदकुशी के प्रयास को धारा 309 के तहत लाया जाना चाहिए या नहीं? ऐसे किसी व्यक्तिको सजा मिलनी चाहिए या समस्या का उपचार? इस धारा को समय-समय पर खारिज करने की मांग उठती रही है। लेकिन यह एक अलग बहस का मुद््दा है, क्योंकि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो बिल्कुल अलग-अलग स्थितियां हैं, जिनमें भेद करना जरूरी है। सवाल है कि इस अधिकार की अंतिम सीमा क्या है? एक बार अधिकार मिलने के बाद यह मांग कहां तक तक जाएगी, इस पर विचार किया जाना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण आदि सामाजिक और व्यवस्थागत चुनौतियां विद्यमान हैं, वहां इच्छामृत्यु जैसे अधिकारों का दुरुपयोग होने की आशंकाएं प्रबल हैं।
पिछले कुछ वर्षों में भारत में आर्थिक तंगी के चलते इलाज न करा सकने वाले कई व्यक्तियों और परिवारों ने इच्छामृत्यु की अनुमति के लिए जिला कलेक्टर, राज्य सरकारों से लेकर राष्ट्रपति तक के पास आवेदन किए हैं। यही नहीं, कानपुर के कोपरगंज इलाके में बरसों से रह रहे चीनी मिल परिसर के निवासियों को अदालत के आदेश पर जब घर खाली करने पड़े तो बेघर हुए करीब छियासी परिवारों ने राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की मांग की। यह स्थिति केवल भारत की नहीं है, विश्व के अधिकतर देश इसके दुरुपयोग होने की आशंकाओं के चलते संशय में रहते हैं। बेल्जियम में 2002 से 2012 के बीच वयस्कों के लिए इच्छामृत्यु के अधिकार के तहत करीब साढ़े छह हजार आवेदन आए, जिनमें अधिकतर मामलों में वैसे लोगों के आवेदक होने की संभावना है जो निराशापूर्ण जीवन से तंग आ चुके हैं। डॉक्टर डेथके नाम से प्रसिद्ध अमेरिका के डॉक्टर जैकब जैककेवोरकियन को एक सौ तीस व्यक्तियों को इच्छामृत्यु के नाम पर जहर देकर मौत देने के आरोप में जब दोषी पाया गया तो भारत से लेकर अमेरिका तक के डॉक्टर यह मानने लगे कि इस तरह के कानून की आड़ में मानव अंगों की तस्करी से लेकर स्वार्थी गतिविधियों और दूसरे अवैध धंधों को बल मिल सकता है।
चिकित्सकीय नीतिशास्त्र के मुताबिक  डॉक्टर से यह अपेक्षा की जाती है कि जब तक संभव हो सके तब तक मरीज को जिंदा रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। टीबी और कैंसर के इलाज में मिली सफलता इस बात का प्रमाण है कि नई-नई खोजों से लाइलाज बीमारियों का इलाज कब संभव हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में किसी मरीज को हताशा के गर्त में कैसे झोंका जा सकता हैइच्छामृत्यु के समर्थक मानते हैं कि विशेष और अपवाद जैसी परिस्थितियों के चलते पीड़ित को सम्मानजनक मौतदी जानी चाहिए। लेकिन क्या सम्मानजनक मृत्युका विशेषऔर अपवादपरिस्थिति ही पैमाना है? या इसके और भी अर्थ निकल सकते हैं? क्या बेल्जियम के सभी आवेदकों की परिस्थिति अपवादहो सकती है? निस्संदेह प्रत्येक व्यक्ति इसका अपने अनुसार अर्थ निकाल सकता है। अगर अरुणा शानबाग को विशेष परिस्थितियोंके चलते निष्क्रिय दयामृत्यु का अधिकार मिल भी जाए तो क्या उसे सह-सम्मान मृत्युकी संज्ञा दी जा सकेगी? इस पर विचार करने की जरूरत है।
भले ही किसी भी देश में इच्छामृत्यु को वैधानिक मान्यता मिल जाए, पर भारतीय संसद और न्यायालय के सामने सबसे बड़ी चुनौती यहां की धर्म और आस्थाओं से घिरी जिंदगी है। आज भी सवा रुपए से लेकर परिक्रमा, व्रत और लंगर नाउम्मीदी के अंधेरे को पसरने नहीं देते। यहां डॉक्टर भगवान का पर्याय है और डॉक्टर भगवान पर भरोसा रखने के लिए भी कहता है। ऐसे में इच्छामृत्यु के सवाल से जूझना क्या आसान होगा?

Monday, June 16, 2014

ब्राज़ील, फुटबॉल और सेक्स टूरिज़्म



फुटबॉल के मक्का कहे जाने वाले ब्राजील में फीफा विश्वकप शुरू हो चुका है. अगले एक महीने तक ब्राजील में ‘ब्राजूका’ सबको नचाएगी. सडकों पर प्रदर्शन, रैलियों और हड़ताल के बावजूद सारी टिकिट बिक चुकी हैं  और लाखों की संख्या में विदेशी पर्यटक ‘फुटबॉल के देश’ में पहुँच रहे हैं. असल में फुटबॉल ब्राज़ील की अस्मिता की तरह है. विश्व के अधिकाँश देश के लोगों का ब्राज़ील से परिचय फुटबॉल के ज़रिये ही हुआ है. यह अकेला ऐसा देश है जिसने हमेशा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया है. पांच बार (1958, 1962, 1970, 1994 और 2002 में) विश्व चम्पियन बन इस लैटिन अमेरिकी देश ने पूरे विश्व में अपनी ‘सॉकर आइडेंटिटी’ बनाई है. कहा जाता है कि ब्राज़ील के खिलाड़ी फुटबॉल को पीछे नहीं भागते बल्कि फुटबॉल ब्राजील के खिलाड़ियों के पीछे भागती है.  इस खेल के प्रति यहाँ की दीवानगी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि मैच के वक़्त कामगार अपनी टीम को देखने के लिए अपना काम रोक देते है. बैंक अपने समय से तीन घंटे पूर्व बंद हो जाते हैं. जगह जगह टीवी स्क्रीन लगा दिए जाते हैं ताकि जो जहां है वहीँ से अपने खिलाड़ियों की लय पर थिरक सकें. दरअसल, फुटबॉल ब्राजील के लिए किसी जज़्बे से कम नहीं है. फुटबॉल यहाँ ‘पैशन’ भी है ‘प्रोफेशन’ भी. 
लेकिन ‘ब्राज़ील’ की तस्वीर में केवल ‘फुटबॉल’ की दक्षता का रंग नहीं है. इसकी तस्वीर के कुछ और रंग भी जो पिछले दिनों दिखलाई पड़े. दरअसल, ब्राजील सरकार ने जब इस आयोजन का जिम्मा उठाया था तब उसे उम्मीद थी की 2014 तक उसकी अर्थव्यवस्था में सुधार हो जायेगा और फुटबॉल की घर वापसी से यहाँ के नागरिकों के चेहरे पर भी ख़ुशी आएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यातायात, स्वास्थ्य सेवाओं, अशिक्षा, बेरोज़गारी और महंगाई जैसी समस्याओं पर फीफा आयोजन को तरजीह दिए जाने पर उसे अपने ही नागरिकों का विरोध झेलना पड़ा. आयोजन पर हुए अरबों डॉलर ख़र्च के ख़र्च को यहाँ के लोग अपनी उपेक्षा से जोड़ कर देख रहे हैं. हालांकि, फुटबॉल के प्रति यहाँ की जनता के मन में जो प्रेम है उस पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन वे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की क़ीमत पर ऐसे भव्य आयोजन को ग़ैरज़रूरी मान रहे है. पिछले कई महीनों से गलियों, सड़कों, विश्वविद्यालयों में यहाँ तक कि विश्वकप उद्घाटन वाले दिन भी स्टेडियम के बाहर समस्याओं से मुंह फेरती सरकार के प्रति लोगों का रोष दिखलाई पड़ा. वहां की पुलिस द्वारा जिस तरीक़े से विरोध दमन की कार्रवाई की गई उसकी तसवीरें अखबार और सोशल मीडिया पर देखी जा सकती है. सवाल जायज़ है कि जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजन के लिए देश अपनी साख हेतु स्टेडियम से लेकर रोड, हवाई अड्डे, होटल बनवा सकता है तो अपनी बुनियादी सुविधाएं दुरुस्त क्यों नहीं कर सकता?   

इन सबके बीच एक वर्ग ऐसा भी है जो ब्राज़ील में विश्वकप की घोषणा के बाद से ही इस उत्सव का इंतज़ार कर रहा था. यह वर्ग ब्राज़ील की ‘सेक्स टूरिज़्म’ की छवि का वह हिस्सा है जो लाखों लोगों के लिए रोज़गार का साधन बना हुआ है. वेश्यावृत्ति के क़ानूनी रुप से वैध होने के कारण यहाँ आठ लाख से अधिक वेश्याएं इस आयोजन को अपने लिए अच्छा मान रही हैं. उभरती हुई अर्थव्यवस्था के बावजूद ग़रीबी, अशिक्षा, और बेरोज़गारी के चलते यहाँ कम उम्र में ही युवक युवतियां सेक्स टूरिज़्म को बढ़ावा देने में संलग्न हो जाते हैं. यह सच्चाई है कि किसी भी देश में अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजनों के दौरान खुलेआम या चोरी छिपे सेक्स टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है लेकिन यह भी झूठ नहीं कि इसी टूरिज़्म की आड़ में बाल यौन कर्म और मानव तस्करी का ख़तरा भी चरम पर रहता है. भारत में देह व्यापर भले ही गैरकानूनी है लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान सेक्स वर्कर्स की सक्रियता देखने को मिली थी. चूंकि ब्राजील में इसे क़ानूनी मान्यता है, इसलिए कई मानव अधिकार संगठनों को यह आशंका है कि विश्वकप के दौरान बाल यौन उत्पीड़न को इससे बढ़ावा मिल सकता है. आंकड़ों की मानें तो 2006 में जर्मनी और 2010 में दक्षिण अफ्रीका के  फुटबॉल विश्वकप आयोजनों के दौरान बाल शोषण के मामलों में तीस से चालीस  फीसदी बढ़ोतरी हुई थी. वहीं ब्राजील सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के खिलाफ अपराध की सरकारी हॉटलाइन पर पिछले साल उन्हें सवा लाख से ज़्यादा फोन आए जिसमें से 26 फ़ीसदी शिकायत यौन शोषण की थी. और तो और ज्यादातर मामले ब्राजील के समुद्री तटों के आसपास के थे जहां अत्यधिक संख्या में पर्यटक आते हैं. सवाल उठता है कि जब सामान्य स्थति में यह आँकड़ा इतना अधिक है तो क्या विश्वकप के दौरान आने वाले लगभग पांच लाख से अधिक सैलानियों से इस ख़तरे का भय और नहीं बढ़ता, वो भी तब जब इस देश पर ‘सेक्स टूरिज़्म’ का टैग चस्पा हो. फिर एक सवाल यह भी है कि क्या इन मामलों को ऐसे देश में रोका जाना आसान होगा जहां महिलाओं को ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखा जाता हो?
                     

                      


अतीत में जहां की सरकरी वेबसाइट पर महिलाओं को वेश्यावृत्ति के टिप्स दिए जाते रहे हो, क्या वहां इस प्रकार की समस्या की उपज सरकार को ख़ुद कठघरे में खड़ा नहीं करती? ब्राजील का बड़ा वर्ग मानता है कि जबसे वेश्यावृत्ति कानून आया है तबसे स्त्रियों के शोषण के साथ साथ बाल यौन शोषण में बढ़ोतरी हुई है. इसके अपने अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन बीते दिनों ऐसी कई रिपोर्ट प्रकाशित हुई हैं जिनमें यह कहा गया कि अकेले ब्राजील में विशेषकर पूर्वी ब्राजील और अमेज़न बेसिन के क्षेत्र में लगभग ढाई से पांच लाख बच्चे सेक्स पर्यटन की गिरफ्त में हैं. इनमे सबसे ज्यादा संख्या बच्चियों की है. यदि यह आँकड़ा सही है तो लाखों जिंदगियों के भविष्य के लिए चिंतनीय है. 
इन सबके बावजूद लेतिन अमेरिकी देशों में ब्राज़ील ऐसों देशों में शुमार है जो महिलाओं और बच्चों की सुविधाओं और कानून व्यवस्था का सबसे अधिक ध्यान रखता है. आज ब्राज़ील ‘सेक्स टूरिज्म’ में कमी लाना चाहता है. इस दिशा में उसने कुछ क़दम भी उठाये हैं और बदलाव भी देखने को मिला है. लेकिन अभी भी ‘देह और काम’ की भाषा यहाँ आम है. नहीं पता इस आयोजन से उसकी अर्थव्यवस्था को कितना फायेदा मिलेगा लेकिन इस आयोजन में बाल यौन उत्पीड़न की समस्या से निपटना उसके लिए एक चुनौती अवश्य होगी. देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनकर ‘डिलमा रूसेफ़’ ने ब्राजील में नए युग का सूत्रपात ज़रूर किया है लेकिन अपने कार्यकाल में उनकी कामयाबी इस आयोजन से ज्यादा अपने देश की महिलाओं को ‘देह’ से मुक्त रोज़गार उपलब्ध कराने तथा बच्चों को सेक्स टूरिज़्म की जगह स्टडी टूरिज़्म का हिस्सा बनाने में होगी. फुटबॉल यहाँ की धरोहर ज़रूर है लेकिन बच्चों, महिलाओं, स्वास्थ्य और शिक्षा से बड़ी नहीं है. फुटबॉल ब्राजील की संस्कृति का हिस्सा है. अपनी समस्याओं से लड़ते हुए ऐसे आयोजन कराना वैश्विक स्तर पर उसे स्थापित भी करेगा लेकिन यह भी सच है कि ग़रीबी से उठता असंतोष खेल से शांत नहीं होता, न ही आर्थिक नीतियां ऐसे आयोजनों से वापिस पटरी पर आती हैं. 
बहरहाल, ‘फ़ीफ़ा वापस जाओ’ नारों के साथ बाहरी भव्य आवरण ओढ़े इस आयोजन की शानदार शुरुआत तो हो चुकी है और यह संपन्न भी उतनी रोमांचक तरीक़े से होगा जैसा अब तक होता आया है लेकिन सामाजिक अस्थिरता के बीच ऐसे आयोजन सीनेट और संसद के लिए कैसे दिन लेकर आएंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता. हाँ, इतना ज़रूर है कि 2016 में होने वाले ओलिंपिक खेलों से पहले यदि ब्राज़ील सरकार इस रोष से कुछ नहीं सीखी तो ओलिंपिक और ख़ुद उसके लिए यह किसी भारी संकट से कम नहीं होगा.

Monday, June 2, 2014

सैनिक, संवेदना, साहस और सच्चाई



भारत-श्रीलंका शांति समझौते पर बहुतेरे लेख, टिप्पणी और किताबें लिखी गई पर साहित्य में इस विषय पर लेखन का साहस बीते पच्चीस वर्षों में किसी ने नहीं दिखाया. हिंदी के अधिकाँश लेखक लीक से हटकर लिखने का खतरा कम मोल लेते हैं इसीलिए पुराना बार बार नए रूप में हमारे सामने आता है. ऐसे में कवि-कथाकार हीरालाल नागर का उपन्यास ‘डेक पर अँधेरा’ विषय के नए उजाले के साथ उस अभाव को भी दूर करता है जो हिंदी में युद्धाधारित उपन्यासों का बना हुआ है. हीरालाल नागर पहली मर्तबा एलटीटीई के बीहड़ इलाक़े में उतरने का जोखिम लेते हैं और ऐसी अदेखी अनसुनी दुनिया से पाठक का परिचय कराते हैं जिसका अनुभव उसे पहले कभी नहीं हुआ.


यह उपन्यास (उपन्यास इसलिए क्योंकि अपने कथ्य के विस्तार और गति के कारण यह कथा कोलाज नहीं उपन्यास ही कहा जायेगा) भारतीय शांति सेना और लिब्रेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम के संघर्ष की व्याख्या भर नहीं है बल्कि उससे कहीं ज़्यादा सैनिकों के अंदरूनी जीवन और संवेदनाओं का साहसिक और मार्मिक दस्तावेज़ है.
औपन्यासिक कथा की शुरुआत 29 जुलाई 1987 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जे.आर.जयवर्धने के बीच हुए करार के परिणामस्वरुप, भारत द्वारा ‘ऑपेरशन पवन’ पर भेजी जा रही सेना से होती है और 21 मई 1991 को राजीव गाँधी की हत्या तक के घटनाक्रम का तथ्यो समेत सूक्ष्मता से वर्णन करती है. लेखक पाठक को चेन्नई से पलाली, जाफ़ना, वावूनिया तक ऐसे रोमांचक सफ़र पर ले जाता है जहां लाईट मशीनगन, ए.के.47, सेल्फलोडिड 7.62 राइफल्स से निकलती गोलियों की धांय धांय है, जहां वीरान बस्ती है, बीहड़ जंगल हैं, चहलक़दमी करते नगर हैं, युद्ध की गवाही देते खेत हैं, अभेद्य किले हैं, सांवली लड़कियों को घूरती सैनिकों की निगाहें हैं, विरोध है, कुंठा है, मजबूरी है, खतरे हैं, माइन्स हैं, बारूद है, विस्फोट है, मृत्यु है, जीवन है, पराक्रम है, पराभव है, आकांक्षाएं हैं, आशंकाएं हैं, विश्वास है, अविश्वास है, भाग्य है, दुर्भाग्य है, पानी भरते मानव मूल्य हैं, दोस्ती की प्रतिबद्धता है, राजनीति का संकट है, और द्वंद्व  में लटका सैनिक है. जाफना से वावूनिया तक, वावूनिया से किलोनोची तक और किलोनोची से मनार तक फैले लिट्टे के साम्राज्य से हिंदी के पाठक का इससे पहले कभी इतना नज़दीक से परिचिय नहीं होता.
लेखक ने कथा कहने के लिए किसी अफसर या आला अधिकारी को न चुन कर एक ऐसे साधारण जवान ‘संजय चौगलिया’ का चुनाव किया है जिसके माध्यम से निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से आए सैनिकों की आकांक्षाओं को सहज ही समझा जा सकता है. दरअसल यह ‘संजय’ लेखक का ही अक्स है जिसने जाफ़ना में रहते हुए इस यथार्थ को भोगा है. यह संजय महाभारत के उस संजय की भांति है जो सबकुछ देखता रहता है और कथा कहता चलता है. इसका कवि ह्रदय समय समय मृत होती संवेदनाओं में उसके भीतर प्राण फूंकता हैं. वह कलम भी उतनी ही ज़िम्मेदारी से पकड़ता है जितनी बन्दूक.. ‘पहल’ ‘साक्षात्कार’ और ‘लहर’ जैसी पत्रिकाओं से ख़ुद को वह साहित्यक समाज से विलग नहीं होने देता.
उपन्यास एक अन्य महत्वपूर्ण पात्र है पन्नी सिल्वम जो जाफना की लड़की से विवाह करना चाहता है. लेकिन जवानों को जाफना में प्रेम की अनुमति नहीं है. इसीलिए छुट्टी की कई अर्जी देने के बाद भी कोई सुनवाई नहीं होती. जब इस बात को लेकर अफसर द्वारा अनुचित व्यवहार किया जाता है तो आक्रोश में पन्नी सिल्वम द्वारा कम्पनी कमांडर की हत्या कर दी जाती है. यह हत्या हमारे सामने कई सवाल खड़े करती है. मसलन, क्या यह हत्या सहनशीलता की परीक्षा का प्रत्युत्तर था या आज़ादी की उस ख्वाहिश का जवाबी हमला जिसकी लगाम जानकर कसी जा रही थी? अफसर और सैनिक के बीच की गहरी होती खाई और विवशता में लगाए गए बगावत के सुरों को इस घटना में सुना जा सकता है.
यहाँ यह भी देखना ज़रूरी है कि जाफना की लड़की से प्रेम करने पर जिस प्रकार की संदेहास्पद प्रतिक्रिया सामने आती है वह समस्त जाफ्नावासियों को शक के घेरे में खड़ा करती है. अर्थात सामने वाला सदैव दुश्मन हो यह आवश्यक नहीं लेकिन सेना को सुरक्षात्मक दृष्टि और मजबूरी के चलते शक की निगाह से ही देखना पड़ता है. इसीलिए वन्नाकुलम गाँव में संजय बच्चे को अपनी ओर आता हुआ कहता है- “अविश्वास का यह प्रेत इतना बड़ा हो चुका था जो शांति सेना और तमिलियनों को हमेशा डराता था.” संजय अपने और अपने जैसे तमाम जवानों के जीवन को व्याख्यायित करता कहता है “हमारी ज़िन्दगी रोबोट की तरह थी. चाबी भर दी जाती थी और हम चल पड़ते थे, मदारी के बन्दर की तरह, जैसा आदेश मिलता था वैसा करने लगते थे. बस तनाव था जिसकी वजह से सभी कुछ हो रहा था”. इस बहुत कुछ होने में कई बार सैनिक का ‘स्व’ को कहीं खो जाता है, कहीं दब जाता है. उसे ख़ुद को झिंझोड़ने का वक़्त नहीं मिलता. विमर्शों की भरमार के बीच हीरालाल नागर सैनिकों के इस ‘स्व’ को खोजने की एक सार्थक पहल करते है. यह पहल शुरू से अंत तक कई प्रसंगों में लक्ष्य होती है.
पाठक द्वारा आसानी से सैनिकों के अंतर्द्वंद्व को महसूस किया जा सकता है कि कैसे एक जवान युद्ध और शान्ति के बीच सदैव झूलता रहता है, डेक पर लेटा आकाश को निहारता अपने निजी जीवन को कैसे तारों की भाँति छितरा हुआ पाता है, कैसे उसके सपने युद्ध में फायरिंग के साथ धुंआ हो जाते हैं, कैसे उसकी बीवी उसकी भाँती कमर कसकर घर की सीमा पर खड़ी रहती है, कैसे वह थकने पर भी अपने न थकने के व्रत को याद करता है, कैसे वह गोलियों से छलनी लाशों, बेघर लोगों की समृतियों के साथ छुट्टी पर घर लौटता है, क्यों उसे ग़लत की मुखालफत करने का अधिकार नहीं होता, कैसे फ़ौज का अनुशासन गूंगा बना देता है और कैसे वह आज भी औपनिवेशिक काल के सेना ढाँचे का हिस्सा बना हुआ है. उपन्यास में लगातार सैन्य मन की तहें खुलती रहती हैं लेकिन कहीं रुदन में तब्दील नहीं होती. लेखक ने निष्पक्षत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने भारतीय सैनिकों के शर्मनाक कृत्यों जैसे छेड़छाड़, बलात्कार, यातनाएं, लूटपाट, रसोई राशन को बाज़ार में बेचना आदि को भी बराबरी से कथा का हिस्सा बनाना.
शांति सेना जाफना में प्रभाकरण के हथियार डलवाने और शांतिपूर्ण चुनाव कराने के उद्देश्य से पहुंची थी लेकिन परिस्थितियों ने शांति सेना और लिट्टे को आमने सामने खड़ा कर दिया. यह तत्कालीन राजनीतिक निर्णय कितना सही या ग़लत था यह अलग बहस का मुद्दा है लेकिन शांति सेना का इन्डियन किल्लिंग फ़ोर्स, बलात्कार, चोर जैसे तमगों के साथ लौटना भारतीय सेना के उस चेहरे को भी दर्शाता है जिसकी कुछ तो वह ख़ुद ज़िम्मेदार थी और कुछ लिट्टे द्वारा वहां की जनता के मन में भरी गई ग़लतफहमी के कारण बनी. डेक पर सवार भारतीय सैनिक जिस अँधेरे को बन्दूक के सहारे चीरने जाते हैं उसी डेक पर अँधेरे को वापिस लेकर लौटते हैं. इस डेक पर बाहर से भीतर तक असफलता का अँधेरा पसर जाता है. कथावाचक अपनी क्षमता का परिचय देते हुए कहता कि हम चाहते तो हमारी नब्बे हज़ार की सेना उनकी कमर तोड़ कर रख सकती थी लेकिन हम तख्तापलट करने नहीं बल्कि आतंक और शांति की इच्छुक सरकार के बीच पुल का कार्य करने गए थे. लिट्टे को बाहर करने के लिए शान्ति सेना भले ही अपनी सीमाओं में बंधी थी लेकिन लेखक की सफलता इसमें है कि वह अपनी कलम को उस सीमा में नहीं बाँधता. वह एलटीटीई के पराक्रम पर न केवल कविता लिखता है बल्कि एक प्रसंग में कहता है “न जाने आज वे लडकियां क्यों याद आ रही हैं जो निडर और निर्भीक थीं और जिनके भीतर संताप और दुःख कलेजे से सटकर बैठा था. मगर मुंह से गुलामी की आवाज़ नहीं निकलती थी. उनके गले में लटकते सायनायड के कैप्सूल और जिद में पहनी फौजी ड्रेस को सलाम करने का मन करता है”. लेकिन अंत में राजीव गाँधी की हत्या के विषय में सुनकर उसे अपने इस लिखे पर पछतावा होता है. यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि लेखक ने एलटीटीई के कृत्यों या हिंसक गतिविधियों को आतंकी संगठन के रूप में ही देखा है. लिट्टे के जज्बे के प्रति उसके मन में जो भाव आते हैं उसे सैनिक मन से अलग करके देखा जाना चाहिए. 
किसी लेखक के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने समय का यथार्थ पकड़ने की होती है. हीरालाल नागर ने इस चुनौती का बखूबी सामना किया है और कहीं उस पकड़ में ढील नहीं आने दी. इतिहास, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीति, साहित्य का संगम इस कृति को कई दृष्टि से देखने का अवकाश देता है. लेखक ने न केवल पूर्वदीप्ति पद्धति का प्रयोग कर अपने जीवन संघर्ष को उपन्यास कथा का भाग बनाया है बल्कि सैन्य अभियान के दौरान लिखी कविताओं का यथास्थान प्रयोग भी किया है. कविता, आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा वृत्त आदि का मिश्रण हिंदी उपन्यास में अब कोई नई बात नहीं रह गई. इनका आवागमन पठनीयता में रोचकता ज़रूर लाता है लेकिन कभी कभी एक ही प्रसंग को कविता और कथा में कह देने से उसका मर्म समाप्त होने की गुंजाइश बनी रहती है. शुरू से अंत तक उपन्यास कथानुकूलित भाषा में कसा रहता है. हालांकि कवि मन होने के कारण काव्यात्मकता बीच बीच में हिचकोले ज़रूर लेती है. सेना की तकनीकि शब्दावली, प्रतीकों और कहावतों का प्रयोग लेखक ने बड़ी समझदारी से यथोचित स्थानों पर ही किया है.  
सैनिक जब लेखक मन रखता हो तो बन्दूक चलाते वक़्त उसे नहीं भूलना चाहिए कि वह एक लेखक भी है लेकिन जब वह लिख रहा हो तब उसे भूल जाना चाहिए कि वह एक सैनिक है. तभी वह तटस्थ भाव से लेखन कर सकता है. यह भाव हीरालाल नागर की सबसे बड़ी विशेषता बन कर उभरा  है. हीरालाल नागर ने सेना में रहते हुए अपने लेखन को विषम परिस्थितियों के बीच न केवल जिंदा रखा बल्कि तटस्थता को भी धुंधला नहीं पड़ने दिया इसकी खुले मन से सराहना की जानी चाहिए.  यह सच है कि हिंदी में आज सार्थक लेखन कम और छपाई ज्यादा हो रही है, लिखने के नाम पर कुछ भी लिखा जा रहा है. ऐसे में डेक पर अँधेरा एक नया, अनूठा, दिलचस्प, और सचाई के अंधेरे पर अपने हाथों से रौशनी डालने वाला पठनीय उपन्यास है.
                      (नया ज्ञानोदय के मई अंक 'सरहद विशेषांक' में प्रकाशित)

Thursday, May 29, 2014

बनारस की ओर ताकता पूर्वांचल



आज़ादी के बाद ऐसा कोई दशक नहीं रहा जब पूर्वांचल का विकास प्रश्न न बना हो. उत्तर प्रदेश का यह पूर्वी अंचल अपनी ‘आंचलिक’ विशेषताओं की के कारण जितना प्रसिद्ध है, दुर्भाग्य से उतना ही उपेक्षित भी. राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश देश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य है या यूं कहें कि यह केंद्र के ‘केंद्र’ में रहता है. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चौधरी चरण सिंह, राजीव गाँधी, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, और अटल बिहारी वाजपेयी सबका संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश में ही रहा. लेकिन बावजूद इसके इस राज्य में, विशेषकर पूर्व प्रधानमंत्रियों के संसदीय क्षेत्रों (फूलपुर, इलाहबाद, राय बरेली, बागपत, अमेठी, फतेहपुर, बलिया) में विकास की वह गति नहीं दिखाई दी जो एक वी.आई.पी सीट के कारण होनी चाहिए थी. जहां तक सवाल लखनऊ का है तो उसके विकास की वजह राज्य की राजधानी होना है न कि पूर्व प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होना. अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बनारस सीट भी इस फेहरिस्त में शामिल हो चुकी है. बनारस समेत पूरा पूर्वी उत्तर प्रदेश नरेन्द्र मोदी से विकास की उम्मीद लगाए बैठा है. यदि उत्तर प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर नज़र डालें तो पूर्वांचल इसके अत्यधिक पिछड़े इलाकों में आता है. विदेशी तो दूर यहाँ देशी पूँजी निवेश भी बमुश्किल दिखलाई पड़ता है. कमोबेश सभी सत्ताधारी दल औद्योगिक विकास के नाम पर कामगारों को झुनझुना थामाते आए हैं जिस कारण शेष उत्तर प्रदेश की तुलना में यहाँ पलायन की दर अधिक है.
                                
                                               
                          
देश के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र बनारस विश्वभर में साड़ियों के लिए प्रसिद्ध रहा है. लेकिन चीन की प्रतिस्पर्द्धा और साड़ियों की नक़ल से यह उद्योग कई वर्षों से संकट की स्थिति से जूझ रहा है. अपनी बुनकर कला के लिए विदेशों तक में पहचाने रखने वाले बनारस, मऊ, आज़मगढ़, संत रविदास नगर, जौनपुर, मिर्ज़ापुर आदि इलाकों के बुनकर तंगी के कारण हज़ारों की संख्या में सूरत और बेंगलोर की ओर पलायन कर रहे हैं. अधिकाँश बुनकर प्रधानमंत्री के गुजरात राज्य के सूरत में ही पावरलूम में सस्ती साड़ी बना रहे हैं. आंकडे बताते हैं कि 1995-56 में बनारस और चंदौली के 75 हज़ार से ज़्यादा कारखानों में करीब सवा लाख बुनकर कार्यरत थे. जबकि  2009-10 में कारखानों की संख्या घटकर पचास हज़ार और बुनकरों की संख्या लगभग नब्बे हज़ार तक आ गई. यह आँकड़ा लगातार घट रहा है. यही हाल विश्व भर में भारतीय हस्तकला की पहचान को स्थापित करने वाले भदोही के कालीन उद्योग का भी है. यह क्षेत्र कभी अन्य राज्यों के कामगारों के लिए काम की पहली पसंद हुआ करता था लेकिन सरकार की कुटीर उद्योग सम्बन्धी योजनाओं के अभाव के कारण भदोही समेत शाहजहाँपुर और पीलीभीत का यह उद्योग अब दम तोड़ने लगा है. कच्चे माल की बढ़ती लागत, मशीनों का बढ़ता दख्ल और बुनकरों की घटती संख्या के चलते कालीन के निर्यात में पिछले कुछ वर्षों से भारी गिरावट देखी जा रही है.
पूरे पूर्वांचल की सडकें बदहाल हैं. बिजली में भारी कटौती और जल आपूर्ति जैसी समस्याओं के कारण कोई यहाँ उद्योग लगाने की पहल नहीं करता. यह दुर्भाग्य है कि कृषि की इस उपजाऊ भूमि को राजनीतिक दलों ने केवल सियासत के बीज बोने के लिए इस्तेमाल किया है. ‘बाउल ऑफ़ शुगर’ के रूप में पहचान रखने वाले इस क्षेत्र के देवरिया ज़िले में 1903 में पूर्वांचल की पहली चीनी मिल स्थापित की गई थी. गोरखपुर मंडल में एक समय बाईस चीनी मिल चला करती थी लेकिन आज उनमें से अधिकाँश बंद पड़ी हैं. किसानों को गन्ने के पूरे दाम नहीं मिल रहे. देवरिया, कुशीनगर, बस्ती, महाराजगंज सभी जिलों में गन्ने की खेती कम हो चुकी है. प्रसिद्ध चित्रकार अमृता शेरगिल के पिता सरदार उमराव सिंह के परिवार ने जिस सराय चीनी मिल की स्थपाना की थी उस पर भी दो वर्ष पहले ताला लगा गया और पांच सौ से ज़्यादा कर्मचारी बेरोज़गार हो गए. 

इस प्रदेश की उच्च बेकारी और न्यून प्रति व्यक्ति आय इसके पिछड़े होने की सत्यता का प्रमाण है.  उत्तर प्रदेश सरकार की एक रिपोर्ट के अनुसार 2011-12 में पूर्वांचल के 28 जिलों की सालाना प्रति व्यक्ति आय मात्र 13,058 रूपए है. यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आठ हज़ार रूपए कम तथा भारत की प्रति व्यक्ति आय 38,048 रूपए (वर्ष 2011-12 में) की लगभग एक तिहाई है. यदि देश के आर्थिक इतिहास पर नज़र डालें तो 1988-89 में भारत की जितनी प्रति व्यक्ति आय थी उतनी पूर्वांचल की अब है. इसका सीधा अर्थ हुआ कि यह क्षेत्र अपनी तमाम क्षमताओं के बावजूद भारत से तेईस वर्ष पीछे चल रहा है. कुपोषण के कारण शिशु मृत्यु दर के आंकड़ों में यह क्षेत्र चौंकाने वाले साक्ष्य प्रस्तुत करता है लेकिन इसे किसी पार्टी के मेनिफेस्टो में शामिल नहीं किया जाता. मातृत्व मृत्यु दर में अपने ही प्रदेश की औसत 258 के बरक्स बस्ती, गोरखपुर और देवीपाटन का औसत पचास से साठ अधिक है किन्तु यह कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनता. दिमाग़ी बुखार से गोरखपुर और आसपास के जिलों में बच्चों की लगातार मृत्यु हुई लेकिन यहाँ की स्वास्थ्य सेवाएं जस की तस बनी हुई हैं.  

सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश से भारत के आठ प्रधानमंत्री आने के बावजूद इस क्षेत्र की हालत इतनी बदतर क्यों है? क्यों किसानों की समस्या, श्रमिकों के पलायन, कालीन उद्योग, पीतल उद्योग, चीनी मीलों पर पड़ते तालों को गंभीरता से नहीं लिया गया? बनारस और कुशीनगर जैसे पर्यटन स्थल होने के बावजूद विकास यहाँ कछुआ चाल क्यों चल रहा है? क्यों इतने वर्षों में यहाँ निवेश नहीं हुआ या निवेश की परिस्थितियां पैदा नहीं की गईं? यह सीधा राजनीतिक दलों की काग़ज़ी योजनाओं, नाकारापन और अदूरदर्शी सोच की ओर इंगित करता है. इस लोक सभा चुनाव में पहली बार पूर्वांचल अखबारों की सुर्खियाँ में रहा. अपनी समस्याओं से निकलने के लिए उत्तर प्रदेश का यह पूर्वी इलाक़ा अब काशी की ओर ताक़ रहा है.

लेकिन साठ महीनों में नरेन्द्र मोदी इस क्षेत्र में क्या वह कर पाएंगे जो इतने वर्षों में नहीं हुआ? यह एक बड़ा सवाल है. दरअसल, प्रधानमंत्री को अपना संसदीय क्षेत्र एक ऐसे विकास के केंद्र के रूप में स्थापित करना होगा जिसका प्रभाव ट्रिकल डाउन प्रक्रिया के तहत आस पास के इलाकों पर भी पड़े. उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती ‘रिवर, वीवर, सीवर’ की होगी. उन्हें अपने क्षेत्र के लघु-कुटीर उद्योगों में पुनः जान फूंकनी होगी ताकि श्रमिकों का पलायन रोका जा सके. संभव है ऐसा होने पर एक स्थिति ‘सूरत’ पलायन कर चुके बुनकरों की वापसी की भी बने इसलिए यहाँ सवाल यह भी उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी वाकई चाहेंगे कि गुजरात से बुनकर वापिस पूर्वांचल की ओर लौटें? ऐसे में नए प्रधानमंत्री संतुलन की स्थिति का निर्माण कैसे करेंगे यह देखना दिलचस्प होगा. उन्हें बुनकरों और मशीनों के द्वंद्व से निपटने के साथ किसानों से किये गए उन वायदों को भी लक्ष्य करना होगा जिनका आश्वासन अमित शाह और वे ख़ुद यहाँ की रैलियों में करते आये हैं. गुजरात के जिस मॉडल की तस्वीर दिखा कर उन्होंने यहाँ विकास के दावे किए हैं उसे गुजरात से भिन्न भौगोलिक परिस्थिति में वे कैसे लागू करते है, यह देखने वाली बात होगी.
               
                      (दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में 29 मई को प्रकाशित)