Monday, April 28, 2014

मर्यादा के बाहर


चुनाव के इस गर्म माहौल में प्रत्याशियों द्वारा प्रयोग की जा रही भाषा चिंता का विषय है। पप्पू, फेंकू, मधुमक्खी, नपुंसक, मूंछ/ पूंछ का बाल...। क्या यही कहने के लिए बची है भाषा? राजनीतिक आलोचना का कोश जिस प्रकार अशोभनीय और आपत्तिजनक शब्दों से आज भर गया है, उसने भाषा की उपयोगिता और उसके सरोकार पर प्रश्नचिह्न लगाया है। चुनाव प्रचार में मुद्दों की राजनीति दूर से हाथ हिलाती रही। अचार संहिता लागू होने के बावजूद जबान पर लगाम न कसना प्रमाणित करता है कि व्यक्तिगत टिप्पणियों के घेरे से बाहर निकलने में नेताओं की कोई रुचि नहीं है। आकाश की ओर थूकते और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने को मुख्य एजेंडे के रूप में पेश कर रहे प्रत्याशी भूल चुके हैं कि भाषा की मर्यादा लोकतंत्र की शुचिता का एक प्रमुख आधार होती है। उनके मुंह से निकला एक-एक शब्द उनके व्यक्तित्व का वजन घटा-बढ़ा सकता है। लेकिन पतनशील संबोधन के जिस धरातल पर खड़े होकर हमारे नेता अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दे रहे हैं वह निहायत छिछली और ओछी राजनीति का नमूना है। तू-तू, मैं-मैं की जो शैली आज इनके बीच प्रचलित है उससे निस्संदेह भाषा का अवमूल्यन, शब्दों का अर्थक्षरण हुआ है।

                                             


क्या ऐसी भाषा, जो व्यक्ति केंद्रित, आक्षेप आधारित हो, मर्यादा की सीमा लांघ चुकी हो और सामाजिक सरोकार के व्याकरण से अछूती हो, वह समाज को आंदोलित करने का दम भर सकती है? आरोपों-प्रत्यारोपों की राजनीतिक भाषा में जब ‘दो अर्थों का भय’ सताने लगे, तब द्विअर्थी संवादों से जनता के भीतर जोश नहीं भरा जा सकता। हां, उकसाया जरूर जा सकता है। ‘उकसाना’ ‘जोश’ से ज्यादा खतरनाक शब्द है। यह असंयम का प्रेमी है और संयम को कोने में फेंकने के लिए लालायित रहता है। इनके बीच भेद समझना बेहद आवश्यक है। मर्यादित और अमर्यादित भाषा के बीच बहुत महीन रेखा है। राजनीति की काई पर खड़े नेता कब इस पार से फिसल कर उस पार चले जाते हैं, पता नहीं चलता। लेकिन संकट तब आता है जब पता रहते हुए भी यह फिसलन जारी रहती है। जैसा वर्तमान में हो रहा है। टीका-टिप्पणी की नीति में भाषा का दुरुपयोग जानबूझ कर किया जा रहा है। क्या चुनाव में भाषा केवल किसी को उघाड़ने का हथियार है? या इसकी उपयोगिता इससे अधिक भी है?
मेरी पीढ़ी के युवाओं ने नेहरू और शास्त्रीजी को नहीं देखा। होश संभाला तो अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री थे, जिनके शब्दों और शैली से स्कूल जाते बच्चे राजनीति और शालीनता का आपसी संबंध प्रत्यक्ष रूप से समझते थे। फिर ऐसे प्रधानमंत्री आए, जिनकी आवाज एक दशक में बमुश्किल तीन बार सुनाई पड़ी। लेकिन पिछले कुछ समय से जो आवाजें कान फोड़ रही हैं उन्हें सुन कर अगर आने वाली पीढ़ी राजनीति और शालीनता का संबंध व्युत्क्रमानुपाती समझने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद, राहुल गांधी, नरेश अग्रवाल, बेनी प्रसाद, मुलायम सिंह, आजम खान, इमरान मसूद आदि नेताओं ने पिछले दिनों जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया, क्या उसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा कहा जा सकता है? क्या यह सौमनस्यता को बनाए रखने में सक्षम है?
धूमिल अपनी कविता में लिखते है:

‘शब्दों के जंगल में
हम एक दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
हम जुबान से कम
जूतों से ज्यादा पाटते थे।’

वैचारिक रक्तपात में एक-दूसर के लिए पाकिस्तान का एजेंट, खूनी पंजा, मौत का सौदागर, कुत्ते के बच्चे का भाई, सबसे बड़ा गुंडा, टुकड़े-टुकड़े करने की बात कहना एक-दूसरे को काटने और जूता मारने से कम नहीं है। यह दबंग, उत्तेजक और बाजारू भाषा वैमनस्यता को बढ़ावा दे रही है। ऐसी शब्दावली सुरक्षा की भावना को जख्मी करती है। राजनीति की यह असंयमित भाषा राजनीति के भयावह रूप का संकेत है। लोकतंत्र में नेताओं के भाषणों से ‘लोक’ शब्द का गायब होना लोकतंत्र को खतरे के निशान के करीब ले जा रहा है। कहते हैं कि भाषा सोच का और सोच व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होता है। अभिव्यक्ति में चरित्रहनन को प्राथमिकता दिया जाना चौड़ी छाती का नहीं, बल्कि नेताओं के संकुचित सोच और बौनेपन का प्रतिबिंब है।
राजनेताओं की भाषा में जनता के आगामी जीवन का ‘विजन’ होना चाहिए। अगर यह माना जाता है कि राजनीति के गलियारों से भाषा की सत्ता तय होती है तो इसमें भी संदेह नहीं कि भाषा के प्रयोग से भी राजनीति के समीकरण बदल जाते हैं। यही भाषा अहम् से वयं और वयं से अहम् तक की यात्रा की भागीदार बनती है। भाषा चाहे तो तनावपूर्ण चुनाव को तनावमुक्त और तनावमुक्त चुनाव को तनावयुक्त बना सकती है, यह उसके उपयोग पर निर्भर करता है। आज भाषा के नैतिक और राजनीतिक आयाम पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि चुनाव प्रचार केवल किसी के आने-जाने की आहट भर नहीं है। उस आहट के भीतर लोकतंत्र की गूंज कितनी है, यह भी देखा जाना आवश्यक है।
इन सबके बावजूद ऐसी भाषा पर ताली पीटने वाले लोग भारी तादाद में मौजूद हैं। दरअसल, यह माना जाने लगा है कि जनता लच्छेदार और फूहड़ भाषा में दिलचस्पी दिखाती है। सवाल है कि क्या ऐसी भाषा एक दिन की उपज है या राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण ने ऐसी भाषा को प्रचलित बनाया है? क्या दस वर्षों के मौन ने भी ऐसी भाषा को प्रोत्साहित करने में भूमिका निभाई है या हम उस नई पीढ़ी के लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी भाषा के नए मुहावरे हम आए दिन निजी एफएम चैनलों से लेकर एमटीवी के कार्यक्रमों और फिल्मों में सुनते रहते हैं? इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए।
क्या राजनीति में हर उबलती अभिव्यक्ति का प्रत्युत्तर देना आवश्यक है? संयम और सहनशीलता जैसे सिद्धांत अभी इतने निर्बल नहीं हुए हैं कि अशिष्ट और अमर्यादित भाषा के प्रत्युत्तर के लिए उसी स्तर पर उतरना पड़े। सहज, संतुलित और तार्किक भाषा का चमत्कार अब भी अशोभन वक्तव्य को पस्त करने का माद्दा रखती है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे कोश पर धूल जमती दिख रही है। राजनीति में दलों के बीच विरोध होना स्वाभाविक है, लेकिन विरोध का कटुता में तब्दील हो जाना निराशाजनक है। शब्दों से अपना सामर्थ्य दिखाने की इस होड़ में विकास और सुरक्षा जैसे शब्द मुंह ताक रहे हैं। व्यंग्य का स्थान अब ‘अभिधा’ ने ले लिया है, जहां लोकप्रियता के लिए बाजारू संप्रेषण में खुल कर गाली-गलौज देने से परहेज नहीं किया जा रहा। क्या चुनाव प्रचार की यह भाषा लोकतंत्र की संस्कृति के अनुरूप कही जा सकती है?
                                                                                                        (जनसत्ता में प्रकाशित)

Saturday, December 7, 2013

ताली


वो पीटते हैं ताली
बायीं हथेली पर रखकर दायाँ हाथ
मैं पूछता हूँ माँ से                                                    
क्यों नहीं बजाते लोग ताली
दायीं हथेली पर रख कर बायाँ हाथ?
माँ कुछ नहीं कहती
दादी भी जवाब नहीं देती।
अगले दिन
भविष्य का बायस्कोप दिखाने
आते हैं घर में पंडितजी
देखते हैं माँ का बायाँ हाथ
और पिता जी का दायाँ
मैं समझ जाता हूँ सारा गणित
कि स्त्री का भविष्य
बाएं हाथ में होता है
और
पुरुष का दाएं में,
इसीलिए ठोकते हैं
वो ताली
बायीं हथेली पर रख कर दायाँ हाथ।

सलाम डेनिस मुकवेगे

नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा के बाद लिखा गया लेख जो जनसत्ता में प्रकाशित हुआ


हाल ही में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए ‘डेनिस मुकवेगे’ का नाम दूसरी बार नामांकित किया गया और दावेदारी भी प्रबल थी। लेकिन विजेता के रूप में रासायनिक हथियार निषेध संगठन के नाम की घोषणा के बावजूद मीडिया से लेकर हर कहीं एक ही नाम छाया रहा- मलाला यूसुफजई। मलाला के हिम्मती कदम के लिए दुनिया ने उसे सलाम भेजा, जिसकी वह हकदार भी है। लेकिन डेनिस मुकवेगे का जिक्र भी उतना ही जरूरी है जितना ओपीसीडब्ल्यू या मलाला का। मुकवेगे उन शख्सियतों में से हैं जो एक मशाल जलाए खड़े हैं और 1998 से अब तक उनके पैर नहीं थके। कांगो के रहने वाले डेनिस मुकवेगे सामूहिक बलात्कार के कारण महिलाओं की आंतरिक चोटों या क्षति को शल्य चिकित्सा के जरिए ठीक करने के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने बलात्कार पीड़ित महिलाओं के लिए अस्पताल और फाउंडेशन की स्थापना कर डॉक्टर होने की नई परिभाषा गढ़ी है और अब तक तीस हजार से अधिक महिलाओं की मदद कर चुके हैं। डेमोक्रेटिक रिपब्लिक कांगो उन देशों में है, जहां सबसे अधिक बलात्कार की घटनाएं होती हैं और महिलाएं हर पल दहशत की जिंदगी जीती हैं।


                                      

किसी भी देश के लिए खनिज की उपलब्धता उसके लिए वरदान होती है, लेकिन कांगो के लिए यही अभिशाप का कारण रहा है। यहां के खनिजों पर कब्जा करने के लिए 1998 से शुरू दूसरे कांगो युद्ध में पचास लाख से ज्यादा लोग मारे गए, जिसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं और बच्चियों पर पड़ा। कहा जाता है कि बलात्कार और यौन हिंसा के सबसे भयावह रूप का शिकार स्त्रियां यहीं होती हैं। सन 2011 के अमेरिकी जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ के मुताबिक यहां पंद्रह से उनचास वर्ष की स्त्रियों के हरेक घंटे में बलात्कार के अड़तालीस मामले सामने आते हैं। संयुक्त राष्ट्र ने तो इसे ‘रेयर कैपिटल आॅफ द वर्ल्ड’ घोषित कर दिया है। यह वही देश है जहां की खदान से यूरेनियम निकाल कर तैयार किए गए परमाणु बम हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए थे। 1960 में यह देश बेल्जियम से आजाद तो हुआ, लेकिन तब से आज तक चैन की सांस नहीं ले सका। कोबाल्ट, तांबा, हंग्स्टन आदि खनिजों की अधिकता उसे गर्त में धकेलती गई और आधिपत्य की लड़ाई में विद्रोही गुटों और पड़ोसी देशों द्वारा हमेशा यह हिंसा, भुखमरी, बलात्कार झेलने को अभिशप्त रहा। दासी बना कर महिलाओं के साथ किए जाने वाले कुकृत्य इस देश के मुंह पर लगातार कालिख पोतते रहे। लाखों महिलाओं का बलात्कार हुआ, बच्चियों तक को नहीं बख्शा गया।
इन सबके बीच बुकावू में डेनिस मुकवेगे ने 1998 में पांजी अस्पताल की स्थापना कर अब तक हजारों महिलाओं का इलाज किया है। संयुक्त राष्ट्र को पिछले वर्ष संबोधित करने वाले मुकवेगे ने बताया की कई दफा उनके पास महिलाएं ऐसी स्थिति में आती हैं, जिसका मैं वर्णन नहीं कर सकता। मुकवेगे सामूहिक बलात्कार और हिंसा से पीड़ित महिलाओं के एक दिन में दस-दस ऑपरेशन करते हैं। दिन के उनके अठारह घंटे अस्पताल में महिलाओं की देखरेख में ही निकलते हैं। उनके इस हौसले के पर कतरने के लिए पिछले वर्ष उनके घर पर हमला हुआ, जहां उनकी गैरहाजिरी में उनकी बेटियों को बंदी बनाए रखा गया, ताकि जब मुकवेगे वापस लौटें तो उनकी हत्या की जा सके। लेकिन मुकवेगे बच गए और उनका सुरक्षा गार्ड हमले का शिकार हुआ। तमाम जोखिम के बावजूद आज भी वे मनोचिकित्सकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से स्त्रियों को मानसिक रूप से सुदृढ़ कर फिर उन्हें सामान्य करने की कोशिश करते हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। कई महिलाएं इलाज के बाद अपने समुदाय का नेतृत्व कर अन्य महिलाओं को जागरूक कर रही हैं।
मुकवेगे ऐसे देश के वासी हैं जिसकी राख को इतिहास ने आज तक गर्म रखा है। समय-समय पर वह सुलगती रही है और अपनी बलात्कारी लपटों से उसने लाखों जिस्म झुलसाए हैं। यों महिलाएं हमेशा युद्ध में पुरुषों का मोहरा बनी हैं। समझा जाता है कि उन्हें कमजोर करना एक पक्ष की मानसिक जीत और दूसरे की मानसिक हार बन जाती है। यही कारण है कि पहला वार उन्हीं पर किया जाता रहा है। लेकिन इतिहास ने महिला की शक्ति भी देखी है, जहां वह भूगोल तक को बदलने का माद्दा रखती है। इसीलिए डेनिस मुकवेगे महिलाओं के इलाज के साथ-साथ उनके सोच को बदलने का काम भी कर रहे हैं, उन्हें उनके अस्तित्व की पहचान करा रहे हैं। आज जब डॉक्टर व्यावसायिकता के आगोश में लिपट गए हैं, ऐसे में डेनिस मुकवेगे नैतिक और सामाजिक सोद्देश्यता के साथ काम कर रहे हैं। उनके सम्मानित कार्य की विश्व पटल पर सराहना की जानी चाहिए। उनके काम में इतनी ताकत है कि कोई भी पुरस्कार उसके आगे हल्का ही रहेगा। खासतौर पर कांगो की महिलाओं के लिए यह डॉक्टर शायद सचमुच का भगवान है!

सम्मान विवाद और राजनीति

Saturday, November 23, 2013

बच्चों का जादुई नज़रिया

(बाल दिवस पर लिखा गया आलेख)

आज नन्हें साथियों का दिन है. बच्चों का दिन है. उनकी चेहरों की निश्छल हँसी का दिन है. बेहतर होगा कि आज हम उनकी सकारात्मक ऊर्जा की बात करें
, उनकी सृजनात्मक क्षमता पर विचार करें और उनके भीतर के अल्हड़ लेकिन मौलिक विचारों की उठती वेग शक्ति को समझने का प्रयास करें. समझना इसलिए क्योंकि बच्चों पर बात करने के लिए हमारे साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम उन्हें अपने अनुसार परिभाषित करने लगते हैं. न तो हम अपने समय से आगे बढ़कर बच्चों के समय में दाखिल होना पसंद करते हैं और न उनके कल्पनालोक की सैर पर जाना हमें रास आता है. 

उनकी सुन्दरता हम अपने दृष्टिकोण से देखना चाहते है. जबकि हक़ीक़त में बच्चों की सुन्दरता उनकी सरलता में निहित है. उनकी कल्पनाशीलता का कोई जवाब नहीं. एक बार उनके साथ उनकी दुनिया को नापने चले जाइए, यक़ीन मानिए आप हैरान रह जायेंगे उनकी रचनात्मकता से। उनके पास ऐसा फ़ीता है जो सागर की तलहटी से एवरेस्ट की चोटी को पलक झपकते नाप सकता है. ऐसी तेज़ धार कैंची है जो समय को काट सकती है. मासूम अधरों से झरते ऐसे बोल हैं जो सबको सोचने पर मजबूर कर सकते हैं. 

मैं बचपन से आज तक कई सृजनात्मक लेखनकार्यशालाओं का भागीदार रहा हूँ. इसलिए यहाँ एक घटना का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगा. बात आज से करीब दस वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल भवन में आयोजित सामूहिक कविता लेखनसत्र की है जिसमें क़रीब सौ-सवा सौ बच्चे थे और सत्र की अध्यक्षता बाल साहित्यकार डॉ मधु पन्त कर रहीं थी. 

बच्चों से जब कविता लेखन के लिए विषयों के सुझाव मांगे गए तो ऐसे विषय सामने आए जो शिक्षा पद्धति, माता-पिता और समाज के दबाव से प्रभावित थे. मसलन, ‘मम्मी पापा में लड़ाई’, ‘दंगा मत करो’, ‘परीक्षा का डर’, ‘मैं लड़की हूँ या लड़का हूँआदि. इन विषयों में कोई नयापन नहीं था, मौलिकता नहीं थी, चुनौती नहीं थी. इनमें बचपना नदारद था और उम्र से पहले बड़े हो जाने के लक्षण दिखाई दिए. 

लेकिन बातचीत कर बच्चों से जब जुड़ा गया, सब भूलकर कुछ देर के लिए जब उन्हें ख़ुद के भीतर उतरने को कहा गया, उनकी क्षमता से उन्हें परिचित कराया गया और अजब, अनूठी बातों पर विचार करने को कहा गया तो ऐसे मौलिक और हैरतभरे विचार सुनने को मिले जिन्हें सुनकर आप सूरदास के बाल कृष्ण को याद करने लगेंगे जो कहते हैं- मैया मैं तो चंद खिलौनों लैहों’. ज़रा बच्चों के कल्पनालोक से आये सुझाव सुनिए- भगवान का स्कूल में दाखिला हो जाए तो..., जंगल में जानवरों का फैशन शो करवा सकते हैं..., अगर नाक और छींक में लड़ाई हो जाये कि हम दोनों में कौन बड़ा है तो..., या अगर गाय अंडे देने लगे और बछड़ा बांग...., सूरज को ठण्ड में ज़ुकाम हो जाये तो..., या सूई की धागे संग शादी करा दी जाए...इत्यादि इत्यादि।

यह वो मासूम दुनिया है जो सरल और विलक्षण है. इस प्रकार की फैंटेसी या तो ख़ुद बच्चे रच सकते हैं या वे जिन्होंने अपना बचपना मरने नहीं दिया। बच्चे जब इन कार्यशालाओं में जब कविता की देह गढ़ रहे थे तो उनकी भाषाई गुल्लक अन्य भाषाओं से आए शब्दों के प्रति रुढ़िवादी नहीं दिखी. उनके शब्द प्रयोगों से सहज हास्य की उत्पत्ति हो रही थी जो किसी के भी चेहरे पर हँसी लाने में सक्षम है. मसलन, ‘गाय अगर जो दे दे अंडे फिर क्या होगा भाई/ मुर्गी कैसे बछड़े देगी बात समझ न आई/ मुर्गा सोता रह जायेगा अपनी चादर तान/ बैल सुबह क्या कुकड़ू कूँ की उठ कर देगा बांग’. या फिर-  चीटी बोली हाथी से तू करले मुझसे यारी/ मुझसे कोई हल्का है न तुझसे कोई भारी’. या इसे पढ़िए- सुई बोली चाकू से करवा दो मेरी शादी/ निपट अकेली रही आज तक हुई सूख कर आधी.और इन पंक्तियों को भी देखिये- जब ईश्वर को स्वर्ग लोक में भला लगा भूगोल/ सोचे मैं भी पढने जाऊं, हो जाऊं एनरोल’.  

बच्चों का यह ऐसा जादुई नज़रियाहै जहाँ तक हम और आप नहीं पहुँच सकते क्योंकि चीज़ों को सृजनात्मक दृष्टि से नहीं देखने का हुनर हम खो चुके हैं. हम इन्द्रधनुष को प्रक्रिया के रूप में देखते हैं लेकिन बच्चे इस पर लटक कर झूलते हैं, हम चूहे के दांतों से डरते हैं लेकिन बच्चे उन दांतों को उधार मांग कर खुराफात करते हैं, हम जंगल में ज़मीन ढूंढते हैं और बच्चे वहां जानवरों का फैशन शो करवाते हैं, हम आस्था का ढोंग करते हैं लेकिन बच्चे ईश्वर को अपना सहपाठी बना लेते हैं, हम धर्म को हथियार बनाते हैं उनके यहाँ बचपना ही धर्म और बचपना ही ज़ात होती है. 



बच्चे जाने अनजाने समरसता के उस स्तर तक पहुँच जाते हैं जहाँ किसी वादका स्कोप नहीं रहता किन्तु हम ताउम्र किसी न किसी वादमें उलझे रह जाते हैं. असल में, हमारी कोशिश चीज़ों को क्लिष्ट बनाकर बौद्धिकता के धरातल पर ले जाने की, दूसरों को प्रभावित करने की होती है. इसी धरातल पर हम बच्चों को भी खड़ा कर देना चाहते हैं. जिन विषयों पर कवितायेँ लिखी गई उन्हें बच्चों के भीतर से बाहर लाना बहुत मुश्किल काम नहीं था. ज़रूरत केवल उनके साथ आत्मीयता स्थापित करने की थी, ख़ुद बच्चा बन जाने की थी. बच्चों संग किया गया यह स्नेहिल प्रयास दिखाता है कि उनकी जिज्ञासा, सोच और इच्छाओं का बाल जगत बेहद विशाल है बशर्ते उनकी आँखों पर अपनी उंगलियाँ न रखी जाएँ. यह चिंतनीय है कि दिन प्रतिदिन बाल मन सिकुड़ रहा है. बच्चे अपनी दुनिया से कटते दिखाई दे रहे हैं. और इसका कारण कहीं न कहीं हम हैं. उनके सरल मन से उपजे सवाल एकल परिवारों में उपेक्षा का शिकार होकर कहीं कोने में दब से जाते हैं. किताबी रट्टे वाली शिक्षा पद्धति उनकी सृजनशीलता को पनपने नहीं देती. उनकी क्षमता माँ बाप की झिड़की में अनजान रह जाती है और उनकी चंचलता, चपलता मैनर्ससीखते सीखते मुट्ठी बंद कर लेती है. सच तो यह है कि हम उनके साथ साथी नहीं, शासक जैसा व्यवहार पसंद करते हैं. हम भूल जाते हैं कि बाल मन बेहद संवेदनशील होता है जो ज़रा से आघात से कई तहों में सिमट जाता है. उनकी मौलिकता, विनोदप्रियता, कल्पनाशीलता को अपने अनुसार संचालित नहीं किया जा सकता.

यह दुर्भाग्य है कि जो माता पिता अपने बच्चे को 10 वर्ष की आयु में 22 वर्षीय युवक की भांति व्यवहार करता देख ख़ुश होते हैं, वे अपने बच्चे के भीतर दम तोड़ता बचपना नहीं देख पाते. बचपन का गला केवल बाल मज़दूरी या बाल यौन शोषण से ही नहीं घुटता, वह परोक्ष रूप से हमारे द्वारा भी घोंटा जाता है. हार’, ‘अंक’, ‘परीक्षा’, ‘फेलआदि शब्दों के जिस भय को बचपन से सफलता पाने के लिए बाल मन में बिठाया जाता है वही भय उन्हें अपने ही घर में असुरक्षित कर देता है. बहुत छोटे छोटे शब्दों को हम इतना बड़ा बना देते हैं कि बच्चा ताउम्र उनसे भयाक्रांत रहता है. डेनमार्क के कवि आर्थर कुद्नरअपने बेटे को संबोधित एक कविता में लिखते हैं- सुनो बेटे/ बड़े बड़े शब्दों से घबराना मत/ बहुत बड़े शब्द बहुत छोटी सी चीज़ का नाम होते हैं/ और जो सचमुच विशाल हैं, बड़े हैं/ उनके नाम छोटे छोटे होते हैं/ जैसे जीवन, शांति, आशा, प्रेम, घर, रात, दिन...

हमें समझना होगा कि अविश्वास, भय और तनाव के साए में किसी का विकास सम्भव नहीं है. विकास का अर्थ केवल हाथ में लैपटॉप या मोबाईल आने तक सीमित नहीं है. अपनी उम्र को न जीना विकास के आवश्यक चरण के छूट जाने जैसा है. तकनीक कुछ समस्याओं का हल भले हो किन्तु सभी का नहीं हो सकती. उसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए अवकाश नहीं होता है. ऐसी स्थिति में संतुलन स्थापित करने की बड़ा दायित्व बड़ों के सिर है. ज़रूरत केवल बच्चों को समझने की, उनके स्तर पर उतरने की है. इसलिए अपनी आँखों से पर्दा हटाकर बाल लोक को पहचानने की कोशिश कीजिए, उनकी क्षमताओं को पहचानिए, स्नेह-संवाद से उनकी कौतुक प्रवृत्ति को बचाइये, और उनकी कल्पनाओं को नया आकाश दीजिये. यक़ीन मानिए उनकी दुनिया बहुत करिश्माई है एक दफ़ा उनके साथी बनकर तो देखिये.